Thursday, October 4, 2012

ग़ज्रल - जिंदगी का ख्‍वाब कहीं टूटा सा...




ज़िं‍दगी का ख्‍‍वाब कई टूटा टूटा सा दि‍ख रहा।
अपनी ही जिंदगी से कोई लुटा लुटा सा दि‍ख रहा।।

सच के लि‍ये न कि‍या कभी संघर्ष अपनी जिं‍दगी में।
खुद की नज़र में आदमी झूठा झूठा सा दि‍ख रहा।। 

लोग आत्‍मा की आवाज को अनसुना कर चलते रहे।
सच के आइने  से मुंह छुपा छुपा सा दि‍ख रहा।।

अपनी बनाई दुनि‍या में मजबूर होते कभी कभी।
नि‍जाम अपना खुद से छूटा छूटा सा दि‍ख रहा।।

अपनी ही जिंदगी को अपनी तरह न जी सके।
फकत आदमी खुदी से रूठा रूठा सा दि‍ख रहा।।

'बृजेश' वासनाओं की फेहरि‍स्‍तों में खुद्दारी दब चली।
खुदगर्जी तले जमीर का दम घुटा घुटा सा दि‍ख रहा।।