Sunday, April 24, 2011

मुक्‍ताहार-1

मुक्तकों में दोहे सदृश अद्भुत मारक क्षमता विद्यमान होता है। कम शब्दों अर्थात् सूत्र रूप में भाव अभिव्यक्त करने का यह सशक्त माध्यम है। हिंदी मुक्तकों को जनप्रिय बनाने का मुख्य श्रेय नीरज को जाता है।जिन्होंने कवि सम्मेलनों के मंच से इस विधा के माध्यम से अप्रतिम लोकप्रियता हासिल की। बहुत से विचार जिन्हें अभिव्यक्त करने का समुचित अवसर नहीं मिल पाता उन्हें मुक्तकों के माध्यम से सहज ही कह जाते हैं।
मुक्तकों की रचना में भोगे यथार्थ का निरूपण होने से मन को शंाति मिलती है। मेरे अंतस में विद्यमान साहित्यकार को अंतर्द्वद्व से विमुक्ति अंततः मुक्तकों ने ही दिलायी है। इस प्रकार मेरे रचना-संसार में मुक्तकों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। 
‘आहुति’ प्रबंध काव्य जिसमें विगत 2500 वर्ष से अद्यतन राष्ट्र के लिए सर्वस्व समर्पित करने वाले स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के संघर्ष एवं बलिदानों को याद किया गया है, के प्रणयन के अंतराल में दोहे, घनाक्षरी व अन्य छंदों के अलावे गजल एवं मुक्तकों की रचना हुई। भवावेग में देखते-देखते दो सौ गजलें व सहस्राधिक मुक्तकों की रचना हो गयी। इस संकलन में समावेशित अध्यात्म, जीवन-दर्शन व राष्ट्रीयता से संबंधित कुछ मुक्तक ‘आहुति’ से लिया गया है! मेरी दृष्टि में मुक्तक गजल की अत्यंत करीबी है तथा दोनों की तासीर लगभग एक ही है। कई मुक्तकों का गजल में रूपांतरण अत्यंत सहज, स्वाभाविक प्रक्रिया से संपादित हुआ है।आस-पास के सामाजिक वातावरण का साहित्य पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। इसी कारण सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों ही तरह के भाव यथा प्रसंग मेरे मुक्तकों में परिलक्षित होते हैं। अंततः निराशा पर आशा की विजय ही लेखनी का गंतव्य मंतव्य है। अंततः आलोचकों/ समीक्षकों व पाठकों को ही तय करना है कि मेरा प्रयास किस हद तक सफल रहा। समीक्षा व प्रतिक्रिया अपेक्षित है।
डॉ. बृजेश सिंह 
428, एल-3, विद्यानगर बिलासपुर (छ.ग.)  
भूमिका
                               प्रबंधकाव्य से प्रायः पृथक मुक्तक काव्य नामानुरूप मुक्त काव्य रचना है जो मुक्त भावों व विचारों को एक छंद विशेष में पिरोकर पाठ्याधार पर मुक्तक काव्य और गेयता को गृहीत कर गीतिकाव्य कहलाती है। मुक्तक और गीति दोनों काव्य-रचनाएँ संक्षिप्तता, भावावेग, भावान्विति और छंदबद्धता के कारण प्रायः समान और संगीतात्मकता के कारण किंचित् भेद को उद्भासित करती है। स्पष्ट है कि भावात्मक और विचारात्मकता के साथ रागात्मकता का समावेश गीत है जो संगीत से सहज स्फूर्त है। यदि प्रबंधकाव्य में धरा की विविधता और व्यापकता का फलक है तो मुक्तक काव्य में घर-आँगन और ग्राम-नगर का निरूपण है। एक में विस्तार है तो दूसरे में सार-सार का सारा संसार है। इस निकष पर यदि प्रबन्धकाव्य वर्णनात्मक या विवरणात्मक काव्य है तो मुक्तक या गीतिकाव्य ललित निबंध का निरूपण है। पल्लवन की प्रक्रिया में प्रोन्नत होकर प्रबंधकाव्य यदि वट-वृक्ष का विराट स्वरूप है तो मुक्तक या गीतिकाव्य धरोन्मुख जड़ों के निर्मित झूले हैं। यदि प्रबंधकाव्य सुमेरू पर्वत है तो मुक्तक व गीतिकाव्य हनुमान जी द्वारा लाए पर्वत-प्रखण्ड के सारांश संयोजन। यदि एक में भावों व विचारों का आयतन है तो दूसरे में घनत्व। अग्निपुराण में ऐसे अर्थ-द्योतन और चमत्कार-प्रदर्शन करने वाले श्लोकों को मुक्तक कहा गया है जो स्वतः स्फूर्त, पूर्ण व मुक्त रचना है। अभिनव गुप्त ने ‘ध्वन्यालोक’ में स्पष्ट निर्देश दिया है कि पूर्वापर संबंधों से परे मुक्तक काव्य ऐसी मुक्त रचना है जो किसी अन्य भावों व विचारों के सहयोग के बिना स्वतः स्वतंत्र सत्ता संजोने में सक्षम-समर्थ होती है। यद्यपि संस्कृत के समीक्षकों ने इसके भेदोपभेद पर पर्याप्त प्रकाश डाला है तथापि यह सर्वमतेन स्वीकृत है कि मुक्तक एक श्लोेक में पूर्ण होने वाली सार्थक रचना है जो मुक्तगामी होने के कारण किसी निर्धारित परिभाषा व निश्चित रूप भेद के बंधन की मोहताज नहीं है। यह सहजता, सरलता, सरसता और सुबोधता को संचारित कर भावों व विचारों के प्रसार तथा व्यंजना के विस्तार के कारण स्वभावतः संप्रेषणीय होती है। हिन्दी ने आधुनिक युग में गीति के साथ मुक्तक को भी लोकप्रिय बनाया। छायावाद में यह उत्कर्ष को स्पर्श करने लगा। बच्चन व नीरज ने गीत और मुक्तक को साहित्य अर्थात् प्रकाशन और मंच में समान रूप से प्रतिष्ठित करने में हिंदी को संस्कारी पाठक प्रदान किए। वैसे प्रसाद के ‘आँसू’ व बच्चन की ‘मधुशाला’ मुक्तक शैली में प्रणीत प्रबंधकाव्य के रूप में भी प्रतिष्ठित हुए हैं। इसी काल मुक्तक व रूबाई छंद का प्रचुर प्रयोग हुआ है। नीरज ने इस परंपरा को ऊँचाई दी तथा हिंदी प्रदेशों में मुक्तकों एवं रूबाईयों को प्रकाशन व मंच के माध्यम से जन-जन का कंठहार बना दिया। सांप्रदायिक सौहार्द्र के प्रतीक ये छंद और भाषा के भेद के भुलाने के स्वस्थ संयोजन सिद्ध हुए। छंद के रूप में प्रथम, द्वितीय व चतुर्थ चरणों में तुक योजना और तृतीय चरण में इसका निर्वाह न होकर समान मात्राओं की नियोजना से युक्त विशिष्ट प्रवाहात्मकता अनुभूति और अभिव्यक्ति के सौंदर्य को सहेजकर रखती है। इसी आधार पर इसके प्रत्येक छंद मुक्त कविता और परस्पर संबंधित होकर गीति या प्रबंधकाव्य को भी प्रस्तुत करती है। नीरज के मुक्तक और गीत इसी दृष्टि से चार-पाँच दशक पूर्व अत्यंत लोकप्रिय थे जिन्हें प्रकाशन व मंच में समादर मिला। छत्तीसगढ़ प्रदेश से यदि मुक्तकों का प्रथम संग्रह बलदेव भारती का निकला तो द्वितीय गीत, गजल और भजन के सृजनहार डॉ. बृजेश सिंह जी का यह मुक्तकों का संग्रह जीवन के विविध रस, रूप, रंग और गंध को प्रकट करता है। आज की समसामयिक स्थितियाँ और आधुनिक परिस्थितियाँ पृष्ठभूमि के रूप में प्रस्तुत हैं। अध्यात्म, जीवन दर्शन व अन्य पर बयासी, जिन्दगी पर छः, ग्राम्य जीवन पर उन्नीस, माँ पर नौ, गुरुवर पर दस, वंदे मातरम् पर पाँच, साहित्य की दुकान पर पाँच, राष्ट्रीयता पर अड़तीस, नापाक पाक पर छः, सियासत पर सताईस, कलमकार पर छः, कुछ ऐसे पिता पर नौ, पत्नी महिमा पर इक्कीस और पति पर तीन मुक्तक अत्यंत उपादेय हैं।
देश की आत्मा गाँवों में बसी है लेकिन आज के गाँवों की जो दशा है, कवि बृजेश उस पर लेखनी चलाते हैं। ग्राम की श्री हत हो चुकी है। ग्राम्य जीवन गरीबी की कालिख से पुता हुआ है। भुखमरी ने उनके चेहरे को कर छौंहा कर दिया है। उसके जीवन का कुटज निराधार ही है। अनाथ-सदृश वह जीवन ढो रहा है। जीवन की कुटिया में झरोखे नहीं हैं और प्रसन्न समीर से उसका जीवन वंचित है। टीन के छोटे-छोटे टुकड़े उसकी कुटिया से ऐसे चिपके हैं जैसे उसकी ललचाई हुई आशा। कुटीर की मर्यादा को ढाँकने के लिए टाट के टुकड़े भी सड़ गए हैं और उसकी प्रसन्नता की फुलझड़ी यदि पानी में भींगकर हँसने की कोशिश करती है तो रोना ही आता है। आज गाँव की हँसी आँसू से गीली है। ग्राम को शहर निगलने लगा है। राजनीति के कुत्सित रंग और ईर्ष्या-द्वेष के ढंग ने सीधे-सीधे गाँव को बर्बाद कर दिया है-
राजनीति का कुत्सित रंग यहाँ भी चढ़ गया लगता है।
गाँवों में ईर्ष्या द्वेष का विषबेल बढ़ गया लगता है।
कौन कहता है सीधे सादे लोग बसते यहाँ ‘बृजेश’
अब गाँव पर असर, शहर का चढ़ गया लगता है।

यहाँ के सरपंच व राजनेता इतने नंगे हैं जिनसे खुदा भी डरता है। नियम कानून को ताक में रखकर यहाँ जिधर बम, उधर हम के हिमायती संस्कृति को विनष्ट करने पर तुले हैं-

गाँवों में शक्तिशाली की खुदा भी खैर लेता है।
यहाँ हर ताकतवर को अहंकार घेर लेता है।
‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ कहावत चरितार्थ होती,
‘बृजेश’ यहाँ कमजोरों से भगवान भी मुंह फेर लेता है।

ग्राम्य का आँचल मलीन है। मलीन वदना ग्राम्या के कारण सरोवर का जल भी पंकिल हो गया है और इस पंकिल जल में भाँति-भाँति के कीड़े कुलबुला रहे हैं। मटमैले गंदे जल में ही किसान अवगाहन करके स्वच्छ होना चाहता है किंतु ऋण कीचड़ छूटता ही नहीं और उसकी जिंदगी नीलाम पर चढ़ जाती है। उसके खेत-खलिहान कुर्क होने लगते हैं। सचमुच ग्रामीण जीवन की तेजस्विता बुझ गई है। उसकी जिंदगी भोथरी हो गई है। गाँव को जैसे लकवा मार गया हो। उसके हथियार जंग खाकर और उसके हाथ-पाँव सुन्न पड़कर निर्जीव से हो रहे हैं। मरणासन्न हैं आधुनिक गाँव। उसकी प्राण-शक्ति क्रमशः वायु में विलीन हो रही है। संस्कार की पाठशाला समझा जाने वाला ग्राम आज स्वतः दिग्भ्रमित है। संस्कृति व सभ्यता की नींव हिल गयी हैं-
संस्कार तहजीब की मय्यत उठ गयी लगती है।
संस्कृति सभ्यता की नींव खुद गयी लगती है।
वजूद को बचा रखने के लिए कसमसा रही ‘बृजेश’,
भारत की आत्मा गाँव, शहर दोनों से रूठ गयी लगती है।

दरिद्र झोपड़े में हाथ-पैर फैलाने की भी जगह नहीं है। जीर्ण-शीर्ण कुटिया ही उसका आवास-निवास है और शयन पूजन कक्ष भी बाग-बगीचा, गृहस्थ-परिवार, आंगन-दालान-सब कुछ जैसे चिथड़ों से सजी झोपड़ी में सिमट गए हैं। जीवन सिकुड़ गया है। जिंदगी घबराई-सकुचाई है। भीड़ भरे संत्रास में संकोच इतना पुराना पड़ गया है कि पूरा गाँव सड़ी-गली भाजी की जूड़ी के समान निरर्थक प्रतीत होता है। दुख, गरीबी, बेबसी ने पूरे गाँव को झकझोर दिया है कि घुन खाया हुआ गाँव जब कराहता है तब घुन खाई हुई जिंदगी की सीलन भरी बदबू ही निकलती है। पूरे गाँव को फफूंद लग गयी है। कवि महात्मा गांधी की कल्पना के गाँवों को खोजता है-
कभी नाव गाड़ी पर तो कभी गाड़ी नाव मिलता है।
महज किताबों के पन्नों पर खुशहाल गांव मिलता है।
बदहाली और गरीबी का आलम तो देखो ‘बृजेश’,
अब गाँवों में महज अभाव ही अभाव दिखता है।

ग्राम पंचायतों से गाँव का विकास बहुत दूर लगता है।
गाँवों में अमन चैन की बात आज बहुत दूर लगता है।
‘बृजेश’ बापू की आत्मा जाने कब से कसमसा रही,
वतन में ग्राम स्वराज्य की आस बहुत दूर लगता है।

कभी अतिवृष्टि तो कभी अनावृष्टि का कहर है।
ईर्ष्या द्वेष का बहुतों के दिलों में फैला जहर है।
भाई-भाई का दुश्मन बन गला काटने का आमादा,
‘बृजेश’ गाँवों पर ये कैसा कुदरत का बरपा कहर है।
मनु से लेकर आज तक मनुज ने जीवन को अपने नजरिये से निरखा है। इसके सुख-दुख के आरोह-अवरोह झूले में झूलकर और धूप-छाँव में पल-बढ़कर इसके दोनों पक्षों को पास से परखा है। इसके बाद भी ऐसा लगता है कि जिंदगी हमारी परिभाषा की परिसीमन में कुछ दूरी पर संस्थित है। बसंत और पतझर के हर्ष और विषाद को अमृत और विष अर्पित करने वाली यह जिंदगी न जाने कितने रंग बदलती है-
मधुमास के मस्त झोंके पे झुले झुलाती है जिन्दगी।
कभी पतझड़ की वीरानियों में भटकाती है जिन्दगी।
‘बृजेश’ सुख सागर में कभी हिलोरे लेते रहती जिन्दगी,
तो कभी गम के समन्दर में डूबा जाती है जिन्दगी।
जीवों पर दया करने की वकालत करने वाले मांसाहारियों के दोहरे चरित्र पर लेखक ने व्यंग्य किया है-
जो कहते हैं कि हर जीवों में ऊपर वाले का नूर होता है।
वो अक्सर जिन्दगी भर जीवों का गोश्त खाने में मशगूल होता है।
तड़पते मरते पशुओं पर दया नहीं आती इन्सां को ‘बृजेश’,
इस दुनियां में अक्सर आदमी कथनी करनी से दूर होता है।
जिंदगी में कर्म का महत्त्व सर्वोपरि है लेकिन भाग्य का खेल भी अपना करतब दिखाता है-
दुनिया का मानना है कि इन्सां खाली हाथ आता है।
लाख जतन करे फिर भी इन्सां खाली हाथ लौटता है।
‘बृजेश’ मगर जिन्दगी का फलसफा इतना आसां नहीं होता,
किस्मत का लेख लिए आता, करनी लिए साथ जाता है।

आदमी खाली हाथ आता है और खाली हाथ ही वापस जाता है। जिंदगी की इस वास्तविकता से विलग होने पर ही मनुज व्यथित है। कभी उसे लगता है कि उसका साया भी उससे पृथक् हो गया और कभी वही उसका मित्र और एकाकीपन उसका हमसफर बन जाता है-
जिन पर जिन्दगी लगाया न उनकी भी नजर मय्यसर है।
अपनों ने भी बरपाया कब जमाने से मुझपर कहर है।
गनीमत है कि मेरे साये ने कभी साथ छोड़ा नहीं,
‘बृजेश’ हरदम तनहाइयाँ ही फकत हमसफर है।

मुफलिसी में अपना साया भी न करीबी होता है।
बदहाली फाकामस्ती का दूसरा नाम गरीबी होता है।
गरीब होना दुनिया का सबसे बड़ा अभिशाप ‘बृजेश’,
गरीबी का करीबी होना बहुत बड़ा बदनसीबी होता है।

शेक्सपियर ने जिंदगी को नाटक माना। यह नाटक नकली भी है और असली भी। परिस्थितियाँ और घटनाओं की स्थितियों पर इसका प्रतिफल अवलंबित होता है। इसी कारण कभी जिंदगी दुखद तो कभी त्रासद प्रतीत होती है। परोपकार करते सदैव अच्छा प्रतिसाद नसीब नहीं होता। कभी-कभी न्याय में रत् होकर भी अन्याय का भागीदार बनना पड़ जाता है। सदाचरण का मार्गदर्शक भी तमाशबीन जिंदगी में तमाशा बनकर रह गया है-
साधकों मसीहों की रहनुमाई को हिमाकत मानता है जमाना।
हरदम सियासतदारों के रौब का खौफ खाता है जमाना।
‘बृजेश’ होम करते हाथ जलते देखा है दुनिया में अक्सर,
मसीहों के दुश्वारियों का तमाशाई बन जाता है जमाना।

आनंद का अधिग्रहण बमुश्किल से होता है लेकिन हथेली में रेत की तरह उसका फिसलन खुशी को गम में बदल देने का काम जिंदगी से ही संभव है-
गमों के बादलों को गहराते और छितराते भी देखा है।
मगर आदमी को हादसों के खौफ से थरथराते ही देखा है।
‘बृजेश’ अनहोनियों के दहशत में इंसां की दुश्वारियाँ देखी,
मुश्किल से हाथ आई खुशियों में मातम मनाते भी देखा है।

नियति नटी की तरह चंचला है, विद्युत्च्छटा-सदृश चपला है। काल-चक्र के साथ घूमती उसके आदि और मध्य का कोई ओर-छोर नहीं है-
नियति के शब्दकोष लफ्ज निश्चित आराम नहीं है।
कारवां अविरल चलते रहता यहाँ किंचित विश्राम नहीं है।
काल चक्र घूमता ही रहता हरदम हरपल ‘बृजेश’
काल का आदि मध्य कदाचित अवसान नहीं है।

डॉ. बृजेश कवि, लेखक व समीक्षक हैं। उन्होंने प्रकाशन-मंच की स्थितियों को भोगा है। यही कारण है कि उन्होंने आधुनिक साहित्यकारों/कलमकारों को निकट से निरखा है जिनमें साधना का अभाव है लेकिन व्यावसायिक वृत्ति के बल पर साहित्य को ये दुकानदारी की तरह अपनाये हुए हैं। उन्होंने अनुभव किया है कि लेखनी में दम नहीं लेकिन ये मसीहा बनकर सम्मान पाते हैं। प्रतिभाशालियों को पटकनी देते हैं और नक्कालों का रहनुमा बनकर साहित्य का मखौल उड़ाते हैं-
इनके लिए साहित्य समिति महज दुकान होता है।
दुकानदारी के लिए यहाँ ग्राहक आसान होता है।
कवियों के खैरख्वाह बने जनाब के लिए ‘बृजेश’,
साहित्यकार भीड़ बढ़ाने का महज सामान होता है।

बिना मेहनत मशक्कत के मसीहा सा सम्मान पाते हैं।
लेखनी में दम नहीं पर फोकट में नाम कमाते हैं।
‘बृजेश’ साहित्यकारों का रहनुमा बनना सबसे आसां,
इसलिए जनाब बेधड़क साहित्य की दुकान चलाते हैं।
जैसे दुकान मिलावट के आधार पर चलती है, वैसे ही ये साहित्य में भी मिलावट का मान रखते हैं। जीवन में चोरी और सीनाजोरी’ भले सफलीभूत न हो, लेकिन साहित्य में यह खुलेआम बदस्तूर जारी है-
सम्मेलनों में अक्सर विनम्रता का पाठ पढ़ाते हैं।
स्वार्थ में बाधा पड़ते ही शैतान सा दांत दिखाते हैं।
मिलावट की इनकी खानदानी आदत पुरानी,
इसलिए जनाब साहित्य की दुकान चलाते हैं।

साहित्य महत् उद्देश्य को लेकर चलता है। वह सत्य, नैतिकता, धर्म और न्याय पर आश्रित होता है। सामाजिक हित उसका मंतव्य होता है। इसके लिए साहित्यकार, पत्रकार व कलमकार में सच बोलने का जुनून होता है लेकिन गीत को लफ््फाजियों का खेल और कवि-गोष्ठियों के माध्यम से गद्य-सम्मेलन का मेल बनाने वाले ये तथाकथित गीतकार गीत को गाना बनाकर और इसे पेट से जोड़कर हृदय को सुरभित करने की अपेक्षा आजीविका को सुरक्षित कर लेते हैं।
सामाजिक सरोकारों पर समर्पित कलाकार होना चाहिए।
कलमकार शायर गीतकार पत्रकार पानीदार होना चाहिए।
गीत महज लफ्फाजियों का खेल नहीं होता ‘बृजेश’,
हृदय सुरभित करने का गहन उद्गार होना चाहिए।

‘मसीहा’ शब्द ने आज अपना अर्थ खो दिया है। वस्तुतः मसीहा होना तलवार की धार पर चलना है लेकिन आजकल साधना से भटके और विभ्रम में अटके मसीहा घाटे-घाटे, बाटे-बाटे देखे जा सकते हैं-
साधकों मसीहों की रहनुमाई को हिमाकत मानता है जमाना।
हरदम सियासतदारों के रौब का खौफ खाता है जमाना।
‘बृजेश’ होम करते हाथ जलते देखा है दुनिया में अक्सर,
मसीहों के दुश्वारियों का तमाशाई बन जाता है जमाना।

अर्थ का वर्चस्व यत्र-तत्र-सर्वत्र है। धर्म में भी इसकी पैठ इतनी हो गयी है कि मंदिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारों व गिरजाघरों में भी आदमी का कद, अर्थ के आधार पर प्रमाणित होता है-
दुनिया में जयकारा अमीरों और दौलत का बोला जाता है।
आदमी को इल्म से नहीं सिर्फ दौलत से टटोला जाता है।
‘बृजेश’ मंदिर मस्जिद बिहारों में गिरजाघरों, गुरुद्वारों में,
हर जगह इन्सां का कद महज स्वर्ण रजत से तौला जाता है।

लोग कहते हैं कि दस बेईमान दोस्तों से एक ईमानदार दुश्मन अच्छा है लेकिन बेईमानी के इस जहान में दुश्मन भी दमदार नजर नहीं आता, यही कवि की व्यथा है। वस्तुतः थोथे और ओछे लोगों से घिरे कवि को यह जिंदगी कुत्ता-घसीटी ही तो आभासित होती है-
दमदार दोस्त मिले तो डगर जीवन की आसान होती है।
दुश्मन दमदार मिले तो हिम्मत की पहचान होती है।
बदनसीबी है अगर टुच्चों से पाला पड़ता ‘बृजेश’,
कुत्ता घसीटी में जिंदगी नाहक हलाकान होती है।

कवि राष्ट्रभक्त है। राष्ट्रीय अस्मिता उसकी प्रतिबद्धता है। वह ‘वंदे मातरम्’ को मंत्र की तरह हृदयंगम करता है-
फिरंगी निजाम के जुल्मों सितम का जवाब वंदे मातरम्।
रहा वतनपरस्ती का सैलाब इंकलाब वंदे मातरम्।
‘बृजेश’ कहते हैं ब्रितानी निजाम का सूरज डूबता था ना कभी,
डूबोया अंग्रेजी सल्तनत का आफताब वंदे मातरम्।

कवि को इस बात का भी अफसोस है कि इतिहास से हमने कुछ सीखा नहीं। यही कारण है कि इतिहास पुनः दुहराया जा रहा है-
हिन्दुस्तान के पुराने जख्म की कसक बाकी है।
दहशतगर्दों के जुल्मों सितम की दहक बाकी है।
बहुत गंवाकर भी हमने आज तक न सीखा ‘बृजेश’,
तवारिख के हादसों से अब तक सबक बाकी है।

पाक के नापाक इरादे पर चेतावनी देता हुआ कवि स्पष्ट करता है कि बंगलादेश के अलगाव से पाक को सबक लेना चाहिए। यदि उसका रवैया नहीं बदला तो वह दिन दूर नहीं जब उसका कद छोटे से छोटा होकर समाप्त हो जाएगा-
आगे और क्या खोयेगा, बहुत जल्द पता लग जायेगा।
पाक यकीनन अपनी नापाक करनी पर पछतायेगा।
अभी तो महज बंगलादेश को खोया है ‘बृजेश’,
आगे दुनिया के नक्शे पर खुर्दबीन से खोजा जायेगा।

तेरा कद सिमट रहा है आगे और सिमट जायेगा।
जब से बना, पिटता आया हरदम आगे और पिट जायेगा।
‘बृजेश’ किसी दिन हमारे सब्र का बांध अगर टूटा नापाक पाक,
दुनिया के नक्शे से तेरा नामोनिशान भी मिट जायेगा।

कवि का मंतव्य है कि यह तलवारों का नहीं, कलम का देश है। जब कलम कारगर नहीं होती तब तलवार का आश्रय लिया जाता है। आशय यह है कि यह देश अहिंसा पर आधारित है। हिंसा को रोकने अर्थात् रक्षार्थ तलवार का अवलंब आवश्यक माना जाता है-
धर्मक्षेत्र सदा स्वविवेक समादर पर चलता है।
वहशी आततायिओं के कभी मुट्ठी में न पलता है।
ये श्रीराम गौतम महावीर नानक का देश है ‘बृजेश’,
यहाँ धर्म तलवारों में नहीं विचारों के साये में पलता है।

सांप्रदायिक सद्भाव का यह देश आज आवेश और उन्माद में अंधा होकर खून-खराबे में मदमस्त है-
सदियों पहले के जुनून की कीमत कब तलक चुकायेंगे?
मजहबी उन्माद पर अपना रक्त कब तक बहायेंगे?
नफरत के सौदागरों! बन्द करो खून खराबे का खेल,
हिन्दुस्तान के चमन में अब अमन का सुमन खिलायेंगे।

धर्म-परिवर्तन से खुद को अलग समझने वालों के लिए कवि का मंतव्य है कि क्या ऐसा करने से आदमी का पूर्वज भी धर्म-परिवर्तन कर लेगा? धर्म क्या किसी की विवशता से फायदा उठाने का नाम है-
अपने स्वार्थों में बेगैरत नफरत का पाठ पढ़ाते हैं।
हिन्दू मुसलमां को ये हैवान जुदा-जुदा बताते हैं।
कोई पूछता क्यों नहीं इन मजहबी फिरकापरस्तों से,
‘बृजेश’ क्या मजहब बदलने से पुरखे भी बदल जाते हैं।

आजादी का मूल्य त्याग और बलिदान की कीमत पर चुकाया जाता है अतः अब उन संकटों से सावधान होने की जरूरत है जो हमें परतंत्रता की ओर खींचते हैं-
दिग दिगन्त अवनि अम्बर संस्कृति ध्वज फहराना है।
यत्र तत्र सर्वत्र भारत यश कीर्ति-ध्वज लहराना है।
जागते रहो वतनपरस्तों कहीं गफलत में न सो जाना ‘बृजेश’
वेशकीमत आजादी के मशाल को निज रक्त से जलाना है।

कवि प्रताप, शिवाजी, छत्रसाल, कुँवर और जफर जैसे शहीदों का स्मरण करते हैं जिनके कारण देश की स्वतंत्रता सुरक्षित है-
शहीदों ने मौत का पंजा वहशी दहशतगर्दों से लड़ाया है।
स्वतंत्रता का भरपूर मूल्य देश के वीरों ने चुकाया है।
‘बृजेश’ माँ भारती के दामन को गंदा किया आक्रांताओं ने जब-जब,
प्रताप शिवा छत्रसाल कुंवर जफर ने रक्त से दाग छुड़ाया है।

मादरे वतन पर तन-मन-धन सारा कुर्बान है।
हम हिन्दुस्तानियों की आँख का तारा हिन्दुस्तान है।
‘बृजेश’ हमारी रगों में खूं नहीं फौलाद है दौड़ता,
हम वीर प्रताप शिवा छत्र कुंवर जफर की संतान हैं।

हिंदी देश की वाणी है यह राष्ट्रभाषा है लेकिन राजनीति के चलते यह अपने ही देश में परायी है-
हिन्दी भाषी हिन्द देश में ही दुश्वारियों से दो चार होता है।
कुछ हिन्दवासियों के द्वारा राष्ट्रभाषा पर प्रहार होता है।
हिन्दी के साथ अपने ही देश में आज ‘बृजेश’,
अफसोस पराये परदेश सा व्यवहार होता है।

माँ रिश्ते की अनमोल धरोहर है। वह बच्चों के लिए त्याग, धैर्य और सहनशीलता का मिशाल बनती है। स्वतः कष्ट सहकर बच्चों को सुख-शांति समर्पित करती है-
माँ दिल से दुआएँ देते रहती है हरदम।
औलादों की सारी बलाएँ लेते रहती है हरदम।
संतान के सलामती को हर पल फिक्रमंद रहती,
‘बृजेश’ ऊपरवाले को सदाएँ देते रहती है हरदम।

दिया कुदरत ने दुनिया को ए तोहफा अनमोल है।
माँ की ममता का दुनिया में होता न कोई मोल है।
आदमी अक्सर अहमियत समझता नहीं ‘बृजेश’,
माँ के गुजरने के बाद ही वो रिश्ते का कर पाता तोल है।

पुत्र कुपुत्र होता है लेकिन माता कुमाता नहीं होती। वह दूध पिलाकर बच्चों को पालती ही नहीं, संस्कार देकर रक्त का संचार भी करती है-
दूध का कर्ज कोई भी शख्स क्या चुका सकता है।
माँ की कुर्बानियों का मोल कोई बेगैरत ही करता है।
लहू के एक-एक कतरे पे माँ का हक होता ‘बृजेश’,
औलादों की नसों में दूध रक्त बनकर दौड़ता है।

माँ जीवन का वरदान है। वे अनाथ व अभागे हैं जिन्हें माँ की छाया मयस्सर नहीं-
माँ के पाक कदमों में यकीनन सारा जहान होता है।
माँ की सेवा करने वाले पे कुदरत भी मेहरबान होता है।
माँ की दुआओं का असर जानते हैं सभी ‘बृजेश’,
माँ की ममता कुदरत का सबसे बड़ा वरदान होता है।

आदमी के लिए ए कुदरत का सबसे बड़ा सौगात होता है।
ऊपर वाले की सबसे बड़ी नेमत मिला माँ का साथ होता है।
दुख-दर्द मिट जाते हौसला बढ़ जाता सबका ‘बृजेश’,
जब आदमी के सर पे माँ की ममता का हाथ होता है।

कहते हैं माँ के कदमों में जन्नत होती है।
सब जानते उसके आँचल में मन्नत होती है।
औलादों के लिए दिल से दुआ निकलती हरदम,
‘बृजेश’ माँ की दुआओं में सबसे बड़ी लज्जत होती है।

कुदरत के द्वारा औलाद को ए सौगात मिलता है।
धरती पे जन्म लेते ही उसे माँ का साथ मिलता है।
माँ के कदमबोसी के लिए, ‘बृजेश’ फरिश्ते भी तरसते,
माँ के कदमों में सारे तीर्थों का सबाब मिलता है।

दिया कुदरत ने दुनिया को ए तोहफा अनमोल है।
माँ की ममता का दुनिया में होता न कोई मोल है।
आदमी अक्सर अहमियत समझता नहीं ‘बृजेश’,
माँ के गुजरने के बाद ही वो रिश्ते का कर पाता तोल है।

माँ कष्ट सहकर प्रसन्नता के साथ बच्चे को जन्म देती है। दुख उठाकर उसे पालती और संघर्षों से सुरक्षा करके पोषण करती है। वह बच्चे के भविष्य के लिए जीती है। वह स्व-अर्थ को तजकर बच्चे के लिए निस्वार्थ को निर्दिष्ट करती है। यही कारण है कि उसके आँचल में दूध बच्चों के लिए है और आँखों में पानी उसके अपने लिए-
अपनी फिक्र छोड़ औलाद पे वो जान देती है।
कुछ भी कर गुजरने का हौसला जब वो ठान लेती है।
औलाद की बरक्कत ‘बृजेश’ माँ की जिन्दगी का मकसद होता,
मुसीबतों से बचाने वास्ते आँचल को वो तान लेती है।

अपना खुद का सुख माँ के लिए बेमानी होता है।
कुदरत का दिया तोहफा ए आसमानी होता है।
इसलिए किसी कवि ने फरमाया है, ‘बृजेश’
माँ की आँचल में दूध और आँखों में पानी होता है।

यद्यपि डॉ. बृजेश सिंह का लेखन अध्यात्म दर्शन एवं राष्ट्रीयता को केन्द्रित किए हुए है परंतु हास-परिहास का भी समावेश किया गया है। नारी के पत्नी-रूप पर भी कवि की लेखनी चली है। कहीं वह व्यंग्यार्थ में है तो कहीं सकारात्मक या नकारात्मक रूप में। यदि पत्नी शक्ति है तो पति उसके समक्ष चारों खाने चित्त है-
जो कहती है अक्सर वो करके दिखाती है।
कथनी और करनी का भेद पत्नी मिटाती है।
पूँछ दबा पीछे हटने में ही होशियारी ‘बृजेश’,
अपनी पे आयी पत्नी लोहे के चने चबवाती है।

बड़े धैर्यवानों के भी हौसले टूट जाते हैं।
बड़े-बड़े शूरमाओं के पसीने छूट जाते हैं।
छोटे-मोटे की औकात क्या होती ‘बृजेश’,
चक्रवर्ती दशरथ तक वादों में लुट जाते हैं।

सम्मान को बढ़ाती कभी मान को गिराती है।
आसमान से गिराती कभी आसमां पे चढ़ाती है।
पत्नी जी के माया का कोई आदि अंत नहीं
‘बृजेश’ अच्छे सूरमाओं के होश ये उड़ाती है।

पत्नी को प्रसन्न करके स्वर्ग और निंदित करके नर्क का अधिकारी बना जा सकता है-
अनुकूल हुई तो घर स्वर्ग सा सजाती है।
प्रतिकूल हुई अगर तो घर नरक भी बनाती है।
‘बृजेश’ नाहक ही पंगा, कभी लेना ना कवि
कुपित हुई पत्नी अगर तो कहर भी बरपाती है।

क्षणे रूष्टा बनती क्षणे तुष्टा बन जाती है।
चन्द्रमुखी बन पत्नी मन को सहलाती है।
भास्कर प्रभा सा मुख, दामिनी सी दमके कभी,
‘बृजेश’ सूर्यमुखी बन कभी ज्वाल बरसाती है।

डॉ. बृजेश सिंह द्वारा प्रणीत ‘नागा बाबा कमौली वाले का जीवन-दर्शन’ एक ऐसी विशिष्ट अध्यात्मिक कृति है जो अध्यात्म दर्शन प्रक्षेत्र के जिज्ञासुओं के लिए अत्यंत उपयोगी सिद्ध हुई है। लेखक के द्वारा लिखित महाराणा प्रताप विषयक शोध ग्रंथ ‘महान महाराणा’ व ‘महाराणा का प्रताप’ बहुचर्चित कृतियाँ है जो अकादमिक क्षेत्र में भी उपयोगी सिद्ध हुई हैं। डॉ. बृजेश सिंह द्वारा सम्पादित ग्रंथ ‘महाराणा प्रताप’ शोधार्थियों के लिए बहुमूल्य सामग्री प्रदान करने में सक्षम है। कवि द्वारा रचित काव्य संग्रह ‘खिल-खिल जाता मन का उजास’ तथा भजनामृत पाठकों में लोकप्रिय सिद्ध हुए हैं। ‘सरस्वती शतकम्’ गीतिकाव्य जो संस्कृत भाषा में रचित है लेखक के बहुआयामी व्यक्तित्व को प्रदर्शित करता है। डॉ. बृजेश सिंह ने ‘आहूति’ महाकाव्य की रचना की है जो प्रकाशनाधीन है। ‘आहूति’ का विषयवस्तु विगत पच्चीस सौ वर्षों के इतिहास पर केन्द्रित है तथा देश के लिए बलिदान होने वाले स्वतंत्रता सेनानियों की गाथाओं को इसमें समाहित किया गया है। सन् 2003 में लेखक के व्यक्तित्व कृतित्व पर अधिशोध प्रबंध ‘डॉ. बृजेश सिंह व्यक्ति और स्रष्टा’ उजागर हुआ है। इसके अतिरिक्त प्रसिद्ध साहित्यकार, समीक्षक डॉ. इन्द्रबहादुर सिंह द्वारा ‘डॉ. बृजेश सिंह की रचनाधर्मिता’ नामक ग्रंथ का प्रणयन किया गया है जो शोध संदर्भ के रूप में उपयोगी सिद्ध होगा। श्री महेश कुमार शर्मा साहित्यकार/समीक्षक जो विभिन्न सामाजिक, साहित्यिक संस्थानों के प्रमुख के पद पर पदासीन हैं, ने अपने रचित ग्रंथ ‘डॉ. बृजेश सिंह के साहित्य में धर्म, दर्शन आध्यात्मिकता एवं संस्कृति’ में विषय की विस्तृत विवेचना की है। उपरोक्त दोनों ग्रंथ शोध प्रविधि के मापदंड को केन्द्रित कर रचित किये गये हैं। डॉ. बृजेश सिंह द्वारा दो सौ गजल व सहस्राधिक मुक्तकों का प्रणवन किया गया है, जो समाज  व व्यक्ति के जीवन के प्रायः अधिकांश पक्षों को सशक्त भाव में रेखांकित करते हैं।
प्रस्तुत संग्रह के मुक्तक अपने आप में मुक्त अर्थात् स्वतंत्र भी हैं और परस्पर गुंथित होकर मुक्तक काव्य का आस्वाद्य भी प्रदान करते हैं। समासोक्ति इन मुक्तकों की विशेषता है जो सूत्र-रूप में जीवन-दर्शन की विवेचना करते हैं। भावों और विचारों की प्रमुखता है। इसके बावजूद कला-पक्ष से ये विहीन भी नहीं है। अनुप्रास, उपमा, रूपक भावों और विचारों के साथ प्रायः परिलक्षित होते हैं जबकि अन्य अलंकार भी सहयोगी रूप में उपस्थित हैं। छंद के रूप में सुगणित हैं लेकिन कहीं-कहीं भावाग्रह के कारण छंद शिथिल भी हो गए हैं। भाषा भावों और विचारों के साँचे में ढलकर प्रस्तुत हुई है। मुहावरे-कहावतों का प्रयोग संप्रेषणीयता को प्रभावी बनाता है। डॉ. बृजेश सिंह के ये मुक्तक सरल, सहज और सुबोध हैं। आशा है, पाठकों को इससे प्रेरणा मिलेगी। शुभकामनाओं सहित-
डॉ. विनय कुमार पाठक
एम.ए., पी-एच.डी., डी. लिट् (हिन्दी)
पी-एच.डी., डी. लिट् (भाषाविज्ञान) 

मुक्ताहार
अध्यात्म, जीवन-दर्शन व अन्य
 
1
उपर वाले की रहमत हर किसी के हिस्से आई है।
उसकी देन की क्या कर सकता, कोई भरपाई है।
‘बृजेश’ अगर किसी बेगुनाही की सजा मिली भी तो क्या,
यकीनन कई-कई गुनाहों पर हमने माफी पाई है।
2
जवानी को न नाहक बरबाद करना आदमी का काम है।
वक्त रहते अच्छा कुछ कर गुजरना बुद्धिमानी का काम है।
‘बृजेश’ नेकी के खातिर न बुढ़ापे का इंतजार कर आदमी,
अरे! बुढ़ापा तो यकीनन दूसरा लाचारी का नाम है।
3
कभी सुनामी तो कभी बवंडर से दिल सहम जाता है।
भारी तबाही, कुदरत के कहर से दिल दहल जाता है।
आदमी को अपनी हदें अक्सर तोड़ते देखकर जहाँ में,
‘बृजेश’ कभी-कभी कुदरत का भी दिल मचल जाता है।

4
माना कि कभी कुदरत दर्दों का जखीरा लाद देती है।
मगर यही दुनिया भी यकीनन खुशियाँ तमाम देती है।
‘बृजेश’ कुदरत कभी घाव देती है, तो क्या यही मगर,
जख्म भरने और दर्द मिटाने का फकत सामान देती है।
5
कभी प्रेयसी के बेवफाई की विरह तड़पाती है।
तो प्रकृति भी भयानक कभी कहर बरपाती है।
‘बृजेश’ दिलजलों के दुश्वारियों की इंतिहा नहीं जहाँ में,
मधुमास में दरख्त की छांव भी फकत लपट बरसाती है।
6
खुद को नीचे गिराकर क्या खूब कीर्ति कमाई है।
जनाब ने चापलूसों की जमात में दर्ज उपस्थिति कराई है।
‘बृजेश’ बहुत नाम चलता है समाज में खुदगर्ज जनाब का,
अपनी कामयाबी की क्या खूब कीमत चुकाई है।
7
हर जुल्मों सितम सहकर चुप रहना आसान होता है।
इस जहाँ में शराफत का ढोंग करना आसान होता है।
‘बृजेश’ शराफत की चादर ओढ़ अन्याय चुपचाप सहने वालों,
जहाँ में सबसे मुश्किल बरकरार रखना स्वाभिमान होता है।

8
लोग जुल्मों सितम को यूँ ही सहन करते हैं।
हद तो तब होती जब उफ् करने में भी कसर करते हैं।
यहाँ श्मशान सी खामोशी देख डर लगता है ‘बृजेश’,
लगता है इस शहर में महज मुर्दे ही बसर करते हैं।
9
अक्सर ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ का वाक्या आसान होता है।
दिमाग ठंडा रखने की समझाइश का वाक्या महान होता है।
लेकिन बात जब जनाब के मतलब की आती है कभी ‘बृजेश’,
अमन के इन मसीहाओं का गुस्सा सातवें आसमान होता है।
10
खुशी या गम के साथ तासीरे कुदरत बदल जाती है।
मधुमास भी गम के साथ लू के लपट में बदल जाती है।
‘बृजेश’ बुरे वक्त के तासीर का नजारा तो देखो,
मदमस्त बसंत की मस्ती भी पतझड़ में बदल जाती है।
11
इस दुनिया में चाटुकार क्या-क्या रंग दिखाते हैं।
देखते ही देखते कहीं भी विश्वासपात्र बन जाते हैं।
चिकनी चुपड़ी बातों का कमाल देख हैरत होती ‘बृजेश’,
कुपात्र भी सुपात्र होने की महारत दिखाते हैं।

12
दुनिया का मानना है कि इन्सां खाली हाथ आता है।
लाख जतन कर ले फिर भी इन्सां खाली हाथ लौटता है।
‘बृजेश’ मगर जिन्दगी का फलसफा इतना आसां नहीं होता,
किस्मत का लेख लिए आता, करनी लिए साथ जाता है।
13
जिन पर जिन्दगी लगाया न उनकी भी नजर मय्यसर है।
अपनों ने भी बरपाया कब जमाने से मुझ पर कहर है।
गनीमत है कि मेरे साये ने कभी साथ छोड़ा नहीं,
‘बृजेश’ हरदम मेरी तनहाइ ही फकत हमसफर है।
14
साधकों मसीहों की रहनुमाई को हिमाकत मानता है जमाना।
हरदम सियासतदारों के रौब का खौफ खाता है जमाना।
‘बृजेश’ होम करते हाथ जलते देखा है दुनिया में अक्सर,
मसीहों के दुश्वारियों का तमाशाई बन जाता है जमाना।
15
भारतीय संस्कृति से प्रज्ञा मेधा का गहन रिश्ता है।
अध्यात्म से विज्ञान भी अद्भुत समन्वय रखता है।
अणु को ब्रह्म प्रतिपादित करने वाला वैज्ञानिक कणाद,
‘बृजेश’ भारतीय दर्शन में मनीषी महर्षि का दर्जा पाता है।

16
गमों के बादलों को गहराते और छितराते भी देखा है।
मगर आदमी को हादसों के खौफ से थरथराते ही देखा है।
‘बृजेश’ अनहोनियों के दहशत में इंसां की दुश्वारियाँ देखी,
मुश्किल से हाथ आई खुशियों में मातम मनाते भी देखा है।

17
इंसान वासनाओं की बिसात पर मोहरा हुआ जाता है।
पाप को खुली छूट मगर पुण्य पर पहरा हुआ जाता है।
नेकी की गठरी हल्की-हल्की सी लगती ‘बृजेश’,
बदी की गठरी ढोते-ढोते कमर दुहरा हुआ जाता है।
18
बुजुर्गों के महत्व को न संतान समझ पाता है।
काम निकलने पर वृद्धों को अंगूठा दिखाता है।
अंगुलियों का सहारा देकर चलना सिखाया था माँ-बाप ने,
बड़ा होकर औलाद उन्हें उंगलियों पर नचाता है।
19
मुस्करा कर गले लगे तो लबों पर हंसी होती है।
पलक झपकते आगोश ले ले वो मौत प्रेयसी होती है।
जब मिलने को बेताब हो रहे इन्सां को ‘बृजेश’,
तड़पाकर जो गले मिले वो मौत बेबसी होती है।

20
अक्सर बातों ही बातों में रिश्तों की टूटन हो जाती है।
समय चूकने पर ही उसकी अहमियत फसन हो पाती है।
किसी रिश्ते को तोड़ने में एक लम्हा भी न लगता ‘बृजेश’,
मगर जोड़ने में कभी-कभी मुकम्मल जिन्दगी हवन हो जाती है।
21
दमदार दोस्त मिले तो डगर जीवन की आसान होती है।
दुश्मन दमदार मिले तो हिम्मत की पहचान होती है।
बदनसीबी है अगर टुच्चों से पाला पड़ता ‘बृजेश’,
कुत्ता घसीटी में जिंदगी नाहक हलाकान होती है।
22
गैरों के सुख में सुखी होते किसी-किसी को देखा है।
गैरों के दुख में दुखी होते किसी-किसी को देखा है।
अपने दुखों से कम दुःखी रहता है आदमी अक्सर,
दुसरों के सुख में दुःखी होते तकरीबन हर किसी को देखा है।
23
दुनिया में जयकारा अमीरों और दौलत का बोला जाता है।
आदमी को इल्म से नहीं सिर्फ दौलत से टटोला जाता है।
‘बृजेश’ मंदिर मस्जिद बिहारों में गिरजाघरों, गुरूद्वारों में,
हर जगह इन्सां का कद महज स्वर्ण-रजत से तौला जाता है।

24
विमुक्त मेरी अंतरात्मा लादा न कोई सिर पर अपनी वाद है।
अभिव्यक्ति अंतर्मन की करता मेरी हरदम लेखनी आजाद है।
वादों के निरर्थक विवाद में पड़ना मेरी फितरत नहीं ‘बृजेश’,
दक्षिण वाम के झंझटों से दूर वतनपरस्ती बुनियाद है।
25
नियति के शब्दकोष लफ्ज निश्चित आराम नहीं है।
कारवां अविरल चलते रहता यहाँ किंचित विश्राम नहीं है।
काल चक्र घूमता ही रहता हरदम हरपल ‘बृजेश’
काल का आदि मध्य कदाचित अवसान नहीं है।
26
अपनी ख्वाईशों के आगे कितने लाचार हो जाते हैं हम।
अपनी वासनाओं के आगे कितने लाचार हो जाते हैं हम।
कम्बल को छोड़ना चाहते हैं मगर कम्बल छोड़ता ही नहीं,
अपनी आदतों के आगे कितने लाचार हो जाते हैं हम।
27
आस पर दुनिया के जीना, खुद्दार को दूभर होता है।
आदमी के सुख चैन का अवसान अक्सर होता है।
परवशता इन्सान का कद बौना कर देती ‘बृजेश’,
यकीनन सबसे सुखी वही जो आत्म निर्भर होता है।

28
मुफलिसी में अपना साया भी न करीब होता है।
बदहाली फाकामस्ती का दूसरा नाम गरीब होता है।
गरीब होना दुनिया का सबसे बड़ा अभिशाप ‘बृजेश’,
गरीबी का करीबी जो बहुत बड़ा बदनसीब होता है।
29
उनके जीने के अंदाज को देख वहम होता है।
रिश्ता निभाने का स्वांग ही बस अहम् होता है।
खुद्दारी की बात कहते थकते नहीं ‘बृजेश’ जबकि,
खुदगर्जी से इन जनाब का रिश्ता गहन होता है।
30
बियावान में रहकर जो तूफान के थपेड़े सह जाते हैं।
वो ही दरख्त अक्सर कद्दावर बुलंद बन पाते हैं।
कुदरत के इम्तिहान से डरने वाले क्या बुलंद बनेंगे ‘बृजेश’,
बस घुटनों के बल चलते और मुंह की खाते हैं।
31
सदियों पहले के जुनून की कीमत कब तलक चुकायेंगे?
मजहबी उन्माद पर अपना रक्त कब तक बहायेंगे?
नफरत के सौदागरों! बन्द करो खून खराबे का खेल,
हिन्दुस्तान के चमन में अब अमन का सुमन खिलायेंगे।

32
संस्कार तहजीब की मय्यत उठ गयी लगती है।
संस्कृति सभ्यता की नींव खुद गयी लगती है।
वजूद को बचा रखने के लिए कसमसा रही ‘बृजेश’,
भारत की आत्मा गाँव, शहर दोनों से रूठ गयी लगती है।
33
कहते हैं किसी शायर का गरीबी से करीबी रिश्ता होता है।
दुनिया की दुश्वारियों से उसका असली रिश्ता होता है।
सच बोलने की कीमत चुकानी पड़ती है मुंहफट को ‘बृजेश’,
जमाने के दिये दर्द से उसका बहुत नजदीकी रिश्ता होता है।
34
रिश्तों को खोखला कर खुदगर्जी का दीमक गया है।
महज बीबी बच्चों तक परिवार का कद सिमट गया है।
आज माँ बाप भाई बहन सब बेगाने हो जाते यहाँ ‘बृजेश’,
आदमी अपने संकीर्ण दायरे में कैसा लिपट गया है?
35
भोगों की लालसा में इंसान भूल अपने उसूल गया है।
आज आदमी अपनी खुदगर्जी पर कैसे तूल गया है।
सामाजिक दायित्व निर्वाह तो बहुत दूर की बात ‘बृजेश’,
एहसान फरामोश औलाद माँ बाप तक को भूल गया है।

36
जिन्दगी के सफर में अनायास कई लोग जुड़ जाते हैं।
कुछ दूर साथ देकर वे साथी फिर बिछुड़ जाते हैं।
मगर उनमें से किसी-किसी की अहमियत ऐसी भी होती,
‘बृजेश’ हरदम मिठ्ठी यादों की चुभन बन दिल तड़पाते हैं।
37
कठिन मेहनत लगन कसरत से फौलाद सा बदन बनता है।
तेज आंच में तपे बिना न कच्चा सोना कुंदन बनता है।
कुदरत के इम्तिहाँ से डरकर मैदान छोड़ना न वाजिब ‘बृजेश’,
संघर्षों की आँच में तपकर ही इन्सां खरा अर्जुन बनता है।
38
अक्सर अपनी मिट्टी पलीद कर लेते हैं लोग।
फकीर सन्यासी का पाक वेश धर लेते हैं लोग।
‘बृजेश’ संसार से विरक्ति का दावा करने वालों को देखा,
गृहस्थों से भी अधिक सामान भर लेते हैं लोग।
39
कहते हैं उपरवाला देता है तो छप्पर फाड़ के देता है।
मगर ए भी देखा जब लेता है तो हलक फाड़ के लेता है।
कुदरत के इस लेन-देन का अंदाजा मिलता नहीं ‘बृजेश’,
उठाता आसमाँ पर तो कभी पतन के गर्क में पहुँचाता है।

40
हमने इनको भी ऊपर उठकर गिरते देखा है।
उनकों भी बुलंदियों पर चढ़कर गिरते देखा है।
अपनी बुलंद कामयाबी पर इतना न इतराओ ‘बृजेश’,
तुमसे भी बड़ों को नीचे लुढ़ककर गिरते देखा है।
41
कहते हैं छलिया बनकर हरदम छलती है मौत।
सिरहाने पैताने हर तरफ, हर जगह पलती है मौत।
न कोई भाग सका है, न आगे भाग सकेगा ‘बृजेश’,
आदमी से दो कदम आगे हरदम रहती है मौत।
42
कभी किसी पर कुदरत यूँ ही मेहरबनं होता है।
खुदा मेहरबान तो गधा भी पहलवान होता है।
उपर वाले की अनोखी करामात तो देखो ‘बृजेश’,
काबिल न सही पर कभी मुट्ठी जमीं आसमान होता है।
43
अनमोल जिन्दगी को महज कमाने की मशीन बना लेते हैं लोग।
अक्सर अपनी ख्वाईशें संगीन रंगीन बना लेते हैं लोग।
कमाना खाना बस मर खप जाना महज मकसद होता ‘बृजेश’,
अंतिम अंजाम यह कि जमीर को तमाशबीन बना लेते हैं लोग।

44
मगरूर बन नाहक अकड़कर बरबाद होना अच्छा नहीं।
मगर घुटनों के बल घिसटकर आबाद होना अच्छा नहीं।
नेकी और बदी में फर्क करना सीखो जनाब,
‘बृजेश’ हर बात पर जिन्दाबाद होना अच्छा नहीं।
45
इन्सां को अक्सर जवाबदारी बहुत भारी लगती है।
साझे की सुई उठाये न उठती भारी बहुत भारी लगती है।
औलादों से फर्ज का बोझ उठाये न उठता, देखा,
‘बृजेश’ साझे माँ बाप की जिम्मेदारी बहुत भारी लगती है।
46
वक्त की इज्जत करो, कहना ही सिर्फ काफी नहीं है।
वक्त के शब्दकोष यकीनन लफ्ज माफी नहीं है।
वक्त की पूजा जो करता कर्म और फर्ज में डूबा वो रहता,
‘बृजेश’ कुदरत मेहरबां रहती, वहाँ लफ्ज बेइंसाफी नहीं है।
47
आदमी को बुलंदी के मुकाम तक पहुँचा देती है।
दौलत संसद और विधान तक पहुँचा देती है।
काली दौलत के दम पर कई हैवानों को इज्जत पाते देखा,
‘बृजेश’ ए दौलत बड़े-बड़े ऐब बदनुमा निशान तक छुपा देती है।

48
आलस्य का त्याग करता वो वक्त का फर्जन्द होता है।
इन्सां वही है, हरदम जो समय का पाबंद होता है।
आगे बढ़ने का हौसला रखने वालों पर कुदरत मेहरबां रहती,
‘बृजेश’ कामयाबी कदम चूमती अगर इरादा बुलंद होता है।
49
बड़े लोगों के करिश्माई अंदाज का कायल रहता है देश।
अक्सर कुछ बड़ों के रहमोकरम, इशारे पर चलता है देश।
कभी-कभी किसी की महानता की कीमत चुकानी होती,
‘बृजेश’ महानता की बलिवेदी पर चढ़ जाता है देश।
50
अब होली दिल का नहीं दिखावों का व्यवहार बन गया लगता है।
अब होली नंगे-लुच्चे-लफंगों का त्योहार बन गया लगता है।
लोग आज रंगों को तेजाब सा बरसाने लगे हैं ‘बृजेश’,
अब होली महज बदले का हथियार बन गया लगता है।

2 comments:

  1. लंबी पोस्‍ट का एक नमूना, सरसरी पढ़कर भी प्रस्‍तुति के संतुलन आभास होता है.

    ReplyDelete
  2. बहुत बहुत सुंदर आपकी रचनाएं हैं गुरूदेव 🙏🙏🙏

    ReplyDelete