Friday, March 4, 2011

निष्कर्ष - गज़ल संग्रह - भाग 1

1

अपनी संस्कृति पर ए चोट अनायास देते हैं,
मानसिक दिवालियापन मन को आघात देते हैं।

वे बेगैरत होते हैं जो कौमी एकता के नाम पे,
भुला निज पुरखों का बलिदानी इतिहास देते हैं।

देख के आततायियों का महिमामंडन बारबार,
हमको अतीत के टीस भयानक त्रास देते हैं।

बेशर्म आँखों का पानी मर चुका, जाने कब का,
बेगैरतमंदी का आलम यही आभास देते हैं।

अपने जांबाज पुरुखों का बलिदान भूल गये हैं वो
बर्बरों का गुणगान मन की गुलामी का अहसास देते हैं।

बुरी लत लग गई हिन्दुस्तानियों को जाने कब से,
अपनों को भूल गैरों को अहमियत खास देते हैं।

प्रताप, शिवा गोविन्द दाहिर ने सींचा आजादी की पौध को,
ये मगर अकबर आलमगीर कासिम को प्रतिसाद देते हैं।

उन्हें पृथ्वी, संग्राम का बलिदान याद नहीं ‘बृजेश,
फकत गोरी बाबरों का गुणगान मन को उल्लास देते हैं।

2

उजाड़ कर रख दी शांति सौहार्द्र के उपवनों को,
बढ़ा कर रख दी इनने अवाम के उलझनों को।

एका का ठेका लिए मजहब के ठेकेदार कई दिखते यहाँ
अमन की बात करते देखा फकत अमन के दुश्मनों को।

भाई चारे औ अहिंसा का स्वांग रचाए फिरते कई-कई,
शान्ति का मसीहा बनते देखा खून से सने दामनों को।

रहनुमाई कर रहे हैं जो टूटे दिलों को जोड़ने के वास्ते,
अफसोस है आज वही बाँट दिए घर आँगनों को।

आज एकता की बातें करते थकते नहीं जो यहाँ,
हमने देखा वो ही बाँट रहे हैं लोगों के मनों को।

वतन की खुशहाली का ख्वाब देखते देखते ‘बृजेश’
मुल्क की जमा पूँजी की कुंजी थमा दी रहजनों को।

3

इल्म के नाम दहशतगर्दी की तालीमों को देखा है हमने।
रक्त सने ओठ-गालों की लालिमों को देखा है हमने।

दागदार सियासतदारों के चौखट पे आज,
हाजिरी बजाते कई आलिमों को देखा है हमने।

सफेदपोशों की चमकती पोशाकों पे न जाना कभी,
इनके बाह्य-अन्तस की कालिमों को देखा है हमने।

काबिलियत, मेहनत धरी की धरी रह जाती यहाँ,
सम्मान, पदक पाते तमाशबीनों को देखा है हमने।

दौलत की बदौलत इज्जत पाते कई गुनाहगार,
फकत जहीन कहाते कमीनों को देखा है हमने।

आज सियासत दौलत की ताकत पर ‘बृजेश’
इज्जत पाते दरिन्दों जालिमों को देखा है हमने।

4

आधा अधूरा है जो अबतक अभिव्यक्त है,
जो व्यक्त है संपूर्ण नहीं मात्र वो अतिरिक्त है।

मौन मुखरित होने को आतुर दिख रहा,
अभिव्यक्त हो कैसे भला! शब्द सागर रिक्त है।

अन्तर्भाव से नख शिख पुलकित हो उठा,
 हृदय सरस सुधारस से अभिषिक्त है।

मेरे अन्तस में बैठा, अपरिभाषित है अब तक,
मुकम्मल नहीं है ये, जो अब तक हुआ व्यक्त है।

जिसकी तलाश रही मुद्दतों से ‘बृजेश’,
जीवन का फलसफा अब तक अव्यक्त है।

5

चंचल होता मन वो तन पर अपना ही थोपता है,
अंततः आदमी को जरा रोग धर दबोचता है।

जिन्दगी खोखली होती वासना के दीमकों से,
कौन कहता है वो यहाँ भोगों को भोगता है?

आदमी के वासना की आग बुझती नहीं कभी,
मृग मरीचिका है जो महज भोगों में सुख खोजता है।

तृष्णा के ज्वाले को बुझाने कम पड़ता समन्दर का पानी,
नादान है जो भोग को भोगने की सोचता है।

कामनाओं की प्यास अधूरी ही रह जाती ‘बृजेश’,
आदमी भोग को नहीं, आदमी को भोग भोगता है।

6

कामयाबी बुलंदी की कीमत न चुकाना चाहते हैं लोग,
यूँ ही सफलता शिखर पर पहुँच जाना चाहते हैं लोग।

मुफ्त जहर तक मिलता नहीं इस जहां में ‘बृजेश’,
आज यहाँ यूँ ही आबेहयात पाना चाहते हैं लोग।

दूसरों से कुर्बानियों की उम्मीद लगाए बैठे मगर,
अपना न थोड़ा भी पसीना बहाना चाहते हैं लोग।

जले भुने बैठे दूसरों की कामयाबी पे अक्सर,
ईर्ष्या के बारूद पर बैठ मुस्कुराना चाहते हैं लोग।

जमीर का शिकस्त ही मुकद्दर होता अक्सर,
मगर जीत का गीत गुनगुनाना चाहते हैं लोग।

फर्ज से दूर तक का रिश्ता दिखता नहीं ‘बृजेश’,
सिर्फ कामयाबी को गले लगाना चाहते हैं लोग।

7
हकीकत यही मायूसियों की दहलीज है वो।
लोग भले ही कहते अपना हबीब है वो।

महज कहने भर को ही है अपना,
मगर नहीं अपने करीब है वो।

दुश्वारियों से उबरने देता नहीं
शै बड़ा अजीबोगरीब है वो।

खैरख्वाह बनता दामन भी जलाता
जाने कैसा मेरा रकीब है वो।

अपना होके भी अपना न हो सका,
कोई गैर नहीं मेरा नसीब है वो।

कहते हैं जिसके साथ नसीब नहीं होता,
‘बृजेश’ बहुत बड़ा बदनसीब है वो।

8

सर का ताज बनाये बैठे हैं वे अपनी बेदिली को।
हमने सर माथे रखा नायाब अपनी पसंदगी को।


पाक मुहब्बत को अपने सजदा किया था हमने,
मगर शर्मिन्दगी समझ बैठे वो मेरी बन्दगी को।

खेल के सामान से अलहदा न समझे मेरे दिल को,
फकत अदना खिलौना ही समझे मेरी जिन्दगी को।

कैसे बेबस लाचार हम, न कर सके इजहार हम,
अपनी पसंदगी को, अपनी नापसंदगी को।

जुल्मो सितम उनका मगर खुद को दोषी बताते रहे,
हैं खुद हैरान हम देख अपनी इस दीवानगी को।

अपनी बेगुनाही पे तरस खाई न हमने ‘बृजेश’
खुद ही थे मुंसिफ और सजा सुना दी खुदी को।

9

व्यक्ति के व्यक्तित्व का अंदाजा होता उसकी तहजीब से,
जीवन की फसल उपजती है संकल्पों के बीज से।

जो जैसा सोचता वैसा ही वो बन जाता अक्सर,
शुभ या अशुभ कर्म निकलते हैं विचारों के दहलीज से।

किसी समय का कर्म भाग्य में तबदील होता सब जानते,
नाहक गिला शिकवा होता आदमी को अपने नसीब से।

आदमी नजरअंदाज भले कर देता इसे अक्सर मगर,
जमीर सवाल करता है हरदम अमीर से गरीब से।

दुनिया को सुधारने की कवायद में लगा रहता ‘बृजेश’
न देखना चाहता है आदमी खुद को करीब से।

10

या तो जमीर को पतन के गर्क तक गिराना होता है।
या जमीर को बुलंद आसमान तक उठाना होता है।

कोई बड़ा आदमी यहाँ यूँ ही बन जाता नहीं ‘बृजेश’
सब को शोहरत व बुलंदी का मूल्य चुकाना होता है।

सच्चाई के राह पे चलके ऊपर उठना बहुत मुश्किल,
सत्य की बलिवेदी पर स्वयं को चढ़ाना होता है।

आत्मा की आवाज सुनना सब के बस की बात नहीं
जमीर के लिए अपना सर्वस्व लुटाना होता है।

खुद्दारी के राह पर चलना हँसी खेल नहीं होता,
‘बृजेश’ सुख सुविधा सब को दाँव पर लगाना होता है।

11

वजूद को तलाशते हम दर-बदर भटकते हैं,
कब चढ़ेगी परवान अपनी तलाश, हम सोचते हैं।

अंतहीन इस खोज का जाने क्या अंजाम हो,
लाख कोशिश हो मगर मसले न सुलझते हैं।

कुछ खाली-खाली सा अंदर लग रहा, अब
फकत आज अपने सब्र के सत्त्व रिसते हैं।

इंतिहा हो गयी अब इस अंतहीन खोज की,
अपने भीतर की उलझनों से अक्सर उलझते हैं।

ऐसा मिले कोई सच का आइना दिखा दे ‘बृजेश’
सच्चे रहबर की दीदार को हम तरसते हैं।

12

मेरी चाहतों को मेरी मजबूरियाँ समझ बैठे हैं वो,
किसी के शराफत को कमजोरियाँ समझ बैठे हैं वो।

गलबहियाँ औरों से और अपनों से कटते रहे,
अपनी कमियों को अपनी मजबूतियाँ समझ बैठे हैं वो।

कौन अपना कौन पराया समझ आई न अब तक
अपनी नासमझी को अपनी होशियारियाँ समझ बैठे हैं वो।

उनकी सलामती के खातिर दुनिया से लड़ते रहा हरदम
मेरे इस संघर्ष को मेरी दुश्वारियाँ समझ बैठे हैं वो।

न रही एहसान जताने की फितरत हमारी ‘बृजेश’
मेरी इस आदत को दिल की दूरियाँ समझ बैठे हैं वो।

1 comment:

  1. इस नए सुंदर से चिट्ठे के साथ हिंदी ब्‍लॉग जगत में आपका स्‍वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!

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