Friday, March 18, 2011

निष्कर्ष - गज़ल संग्रह - भाग 4

गज़ल क्रमांक 41 से 64
41

न जरूरी ये हरदम कि कर भला तो भला होता है,
कभी होम करते भी किसी का हाथ जला होता है।

इन्सान की जिन्दगी भी क्या अजब शै होती,
सुकून की मस्ती तो कभी दर्द का जलजला होता है।

कई रिश्तों की अगन में झुलस जाता आदमी,
फूँककर भी छांछ पीता जो दूध का जला होता है।

मेहनत ही कामयाबी का सूत्र होता नहीं हर बार,
कर्म और भाग्य में अक्सर मुकाबला होता है।

‘बृजेश’ साथ देकर भी अपनों से चोट खाते कभी,
कौन जाने कब क्या किसी के दिल में पला होता है।


42
जिन्दगी की राह पर मनुज को मुस्कुराना चाहिए,
होठों पर हरदम मस्ती का तराना चाहिए।

दिखाया जा चुका बहुत मौत का खौफ यहाँ,
‘बृजेश’ अब जिन्दगी के गीत गाना चाहिए।

बेशुमार दौलत कमा के देख लिया आदमी,
अब सुकून का अनमोल धन कमाना चाहिए।

बहुत हो चुका मजहबी सियासी खून खराबा,
अब अमन की नेक राह अपनाना चाहिए।

फसाद के ईंधन पड़ रहे सियासी भठ्ठी में खूब,
‘बृजेश’ आगे बढ़ नफरत की आग बुझाना चाहिए।


43
अफसोस अवाम की संयम का न टूटता तटबंध लगता है।
जन गण मन स्वतंत्र चिंतन पर आज भी पाबंद लगता है।

कसम ली भी जम्हूरियत के पहरूओं ने अवाम के खिदमत की,
करतूतों से दिखता मगर बर्बादी का लिया सौगंध लगता है।

पट्टी मुँह पे बंधी लाचार जम्हूरियत सिसकते रहती हरदम,
मुल्क के रहबरों ने ही अब रहजनी का किया प्रबंध लगता है।

अवाम के हसरतों का चीरहरण जाने कब से चल रहा यहाँ,
आज जम्हूरियत का नख शिख पूरा बदल गया रंग, लगता है।

सदाकत मारे मारे फिरती दरबदर भटकते रहती यहाँ,
आज सियासतदार और जुर्म में हुआ अनुबंध लगता है।

सियासत पे काबिज रहने के वास्ते ताकत वहशत की जरूरत,
बाहुबलियों के बिना सियासत का आज अधूरा जंग लगता है।

सियासी फिजाओं की ए क्या तस्वीर हो गयी आज ‘बृजेश’
सियासत का दहशत और वहशत से गहन संबंध लगता है।


44

न पता आदमी को कहाँ को जाना कहाँ से आना है,
माना आवागमन है निरंतर, मगर रास्ता अनजाना है।

हर रूह की बस एक ही कहानी होती यहाँ ‘बृजेश’,
अनन्त से आना है उसे फिर अनन्त में ही समाना है।

जीव शिव एक तत्व अद्वैत का भेद मनीषियों ने पहचाना है,
जीव से शिव का रिश्ता शाश्वत होता पर भेद अनजाना है।

यहाँ आत्मा को भूल सब महत्व देते हैं नश्वर शरीर को,
मुट्ठी की रेत सी होती जिन्दगी, पल में फिसल जाना है।

सब जानते तय अंजाम यहाँ हर देह का बस एक ही,
ए तन है माटी का अंततः उसे माटी में मिल जाना है।

अजर अमर है जीवात्मा अंश परमात्मा का ‘बृजेश’
आत्मा है शाश्वत चिरंतन यही वेद शास्त्रों ने माना है।


45

किसी किसी को ही ऐसी बुलंद किस्मत नसीब होती है,
बड़ी मुश्किलों से उपर वाले की ए रहमत नसीब होती है।

वो ही जिन्दगी कामयाब जिन्दगानी कहाती जिसे,
सब कुछ वतन पे कुर्बानी की लज्जत नसीब होती है।

प्रताप शिवा छत्रा कुंवर जफर के मानिंद शहीदों को ही,
अवाम व मादरे वतन का बेपनाह मुहब्बत नसीब होती है।

अवाम क्या कायनात भी जार-जार रोती हो जिसके जाने पे,
जाबांज सरफरोश शहीद को ऐसी मय्यत नसीब होती है।

खुशकिस्मत वतनपरस्त को मादरे वतन पे मर मिटने की,
‘बृजेश’ अनमोल तोहफा शहादत नसीब होती है।


46
मुल्क के दुश्मनों से लड़ने का भाव दक्षिण वाम में होना चाहिए।
राष्ट्रहित सर्वोपरि की सदाएं हर सुर तान में होना चाहिए।

पीठ पे वार सहते सहते छलनी हो गया वतन कब,
अब जंग आर-पार की खुले मैदान में होना चाहिए।

‘बृजेश’ वतनपरस्ती का जज्बा हर हिन्दुस्तानी अवाम में,
सिख क्रिस्तान हिन्दू मुसलमान में होना चाहिए।

दहशतगर्द को दहशतगर्द कहने की हिम्मत आज,
अपने मुल्क के समूचे इन्सान में होना चाहिए।

वतन के वास्ते कुर्बानी का जज्बा भरने का दम,
मुल्क के कलमकारों के कलाम में होना चाहिए।

अमन के दुश्मनों के अरमान रौंद देंगे, ए फरमान,
‘बृजेश’ लाल किले के हर पैगाम में होना चाहिए।


47

न इसका आदि होता है न इसका अंत होता है,
खुद की वासनाओं के आगे आदमी पस्त होता है।

सात समन्दरों का पानी भी कम पड़ता बुझाने को इसे,
आदमी में जब दावानल तृष्णा का प्रज्ज्वलंत होता है।

अपनी हवस के आगे बेबस हो जाता है आदमी,
तृष्णा खुदगर्जी इन्सान के माथे का कलंक होता है।

जिन्दगी यूं कट जाती एंड़िया रगड़ते-रगड़ते यकीनन,
आदमी को जकड़ ले अगर तो साथ मृत्यु पर्यंत होता है।

तृष्णा की प्यास कभी बुझाए न बुझती ‘बृजेश’,
कहतें हैं कि प्यास तृष्णा का अनन्त होता है।


48

कुदरत से मिली किसी खुशी को अधूरा छोड़ भागता है आदमी,
एक मिली नहीं कि दूसरी तमन्ना के पीछे हाथ धो दौड़ता है आदमी।

ऊपर वाले ने रहमत कर जिन्दगी का अमोल तोहफा दिया,
मगर मृगमरीचिका के हसीं भ्रम में जिन्दगी गंवाता है आदमी।

आदमी दौलत को नहीं दौलत आदमी को ही भोगती अक्सर,
भौतिक सुख सुविधाओं का गुलाम रहता है आदमी।

वासनाएं दिन ब दिन बढ़ती उफनती रहती इन्सां की,
कामनाओं की चाहतों में दर ब दर भटकता है आदमी।

‘बृजेश’ अक्सर एक खिलौने से मन उब जाता अगर तो,
नई दूसरी कई कई हसरतों का दामन थामता है आदमी।


49

भाग्य भरोसे बिन पतवार नैया पर बहते ही जा रहे।
हाथ पर हाथ धरे समय की धार पर कटते ही जा रहे।

वक्त को हाथ में समझे मगर मुठ्ठी की रेत सा फिसलता रहा,
वक्त को हम छलते रहे, वक्त के दूत दिन रात छलते ही जा रहे।

घात प्रतिघातों का दौर चलता ही रहता यहाँ हरदम,
गुजरा वक्त आता न कभी लौट के, हाथ बस मलते ही जा रहे।

वक्त का मोल अक्सर समझते नहीं, सदाकत से वास्ता रखते नहीं,
तन शिथिल हो रहा, काल के ज्वाल में पल-पल जलते ही जा रहे।

गुरूर करना यकीनन आदमी की नादानी कहलाती जहां में,
‘बृजेश’ काल व्याल की गाल पल-पल जकड़ते ही जा रहे।


50

अपनी लतों से अक्सर हार जाता है आदमी,
अपनी हदों से अक्सर बाहर जाता है आदमी।

हाथ पर हाथ धरे बैठा कहता कि मस्ती में हूँ मैं,
फाकामस्ती की तोहमत जमाने पर लगाता है आदमी।

उपर वाले ने हर शख्स को मौका दिया उपर उठने का,
झूठी शान के पीछे रोजी रोटी को ठोकर मारता है आदमी।

कोई-कोई बना लेते है यहाँ अपनी ही एक दुनियाँ,
घर बाहर की तमाम जिम्मेदारियाँ बिसारता है आदमी।

पास में धेला नहीं शौक रईसों सी पाले ‘बृजेश’,
अक्सर अपनी चादर से बाहर पैर पसारता है आदमी।


51

हसीं हसरतों के हश्र से आज इन्सां हैरान है आज।
कद सिमटते देख अपने अब इन्सां परेशान है आज।

जिन्दगी भर खुशियों को खोजता खंगालता,
मृग मरीचिका से सुख पे इन्सां हलाकान है आज।

रेत की दीवार सा ढहता ही जा रहा हौसला,
बजूद बचाने वास्ते दे रहा इन्सां इम्तिहान है आज।

जमीर सिमटता जा रहा दिन ब दिन ‘बृजेश’ अब,
उम्र ढलती जा रही मगर वासना-ए-इंसां जवान है आज।

इन्सानी हवस का न ओर-छोर दिखता कहीं,
जमीर पाताल और ख्वाईश-ए-इंसां आसमान है आज।

रोटी कपड़ा मकान मकसद जिन्दगी का ‘बृजेश’
बन गया अपनी अंतहीन चाहतों का इंसां गुलाम है आज।


52

कभी गिरे हुए देवता सा दिखता है इंसान,
तो कभी उठे हुए चौपाया सा लगता है इंसान।

देवत्व रह-रह के अंदर हिलोरें लेते रहता कभी,
ऋषि-मुनि आलिमों सा महकता है इंसान।

पशुओं की आदतें कई छुड़ाये न छूटती कभी,
तभी मृग मरीचिका में भटकता तड़पता है इंसान।

कभी देवता और पशु दोनों की अच्छाइयों को लेता,
कभी दोनों ही बुराइयों की शै में बहकता है इंसान।

गाफिल मौज-मस्ती मकसद होता कभी ‘बृजेश’,
कभी ऋषि मनीषी औलियों सा जागते रहता है इंसान।


53

कई रातों की जब नींद में पड़ती है खलल,
तब जाकर कहीं एक गीत बनती है गजल।

मन के अंदर का जलजला झकझोरता जब,
दर्द से दो चार होने की जिद बनती है गजल।

तूफां गम का उफां लेता है जब कभी,
इन्सां के अंदर की टीस बनती है गजल।

जब हमदम से मिलने के रास्ते सब बंद होते,
तब किसी की बेबसी की खीस बनती है गजल।

अपनों से बिछड़ने के दर्द की इंतिहा होती,
हमनशीं से मिलने की कशिश बनती है गजल।

लावा जब गम का फूट निकलने को हो आतुर,
‘बृजेश’ दिल के भीतर की पीर बनती है गजल।


54

कई-कई रूप अब बदल के आती है गजल,
आज सतरंगी साँचे में ढल के आती है गजल।

ए कभी जफर का हमसफर बनती ‘बृजेश’
लबों पे दर्द भरे गाने बन जाती है गजल।

खुसरो, दाग, दुष्यंत के लबों पे सजती सँवरती,
आज हिन्दुस्तानी ढाँचे में ढलती है गजल।

अब गजल महज इश्क के दीवानों की सदाएँ नहीं,
आजादी के दीवानों की भी ताने सुनाती है गजल।

हुस्न की मलिका की लटों में उलझ जाती कभी,
कभी सूफियों के मस्त कलामों को महकाती है गजल।

महलों के ख्वाबों में अलसाई सी रहती कभी,
तो कभी गरीब मजलूमों के दर्द बताती है गजल।

ए जहालत पे जम के फटकार लगाती कभी,
कभी इश्क की दिवानी बन इठलाती है गजल।

बिस्मिल, अशफाक रोशन की ताकत बनती कभी,
मस्ती के वतनपरस्ती के तराने सुनाती है गजल।

तासीर इसकी पाक गंगा जमुना सी लगती
जिस धरती से गुजरती रच बस जाती है गजल।

ए गजल तेरे कई रूप देखे है वक्त ने ‘बृजेश’,
वक्त पे जंगे आजादी के तराने कहती है गजल।


55

अंगार खुदगर्जी के बस बरसते ही जा रहे अब,
नाते-रिश्तों के आइने सब दरकते ही जा रहे अब।

‘बृजेश’ देख खलता रिश्तों का खोखलापान,
रिश्तों के सत्त्व कैसे रिसते ही जा रहे अब।

अपनों की दुश्वारियाँ दूर करना बात अब दूर की,
संवेदना के स्रोत सब सूखते ही जा रहे अब।

स्वार्थों में अंधा हो दूसरों की सोचता ही नहीं,
गले खुदगर्जियों के फाँस कसते ही जा रहे अब।

कुर्बानियों की बात महज कहानियों में मिलती ‘बृजेश’,
दिन ब दिन आदमी के कद सिमटते ही जा रहे अब।


56

बात ए कि अपने ही मुझसे बेखबर हो गये अब,
अफसोस अपने ही कूंचे में बेअसर हो गये अब।

खूं पसीने से बनाया घर अपना सा लगता नहीं,
‘बृजेश’ अपने ही आशियाने में बेघर हो गये अब।

जिन्दगी जिन पे लगाई आज अपने न रहे वो,
अपने ही निजाम से बेदखल हो गये अब।

कल तक चलता था सिक्का वहाँ अपने ही नाम का,
कभी बा अकल थे मगर बे अकल हो गये अब।

जिनको सींचा उनका शिकार होना मुकद्दर अपना,
‘बृजेश’ जो बा अदब थे कैसे बे अदब हो गये अब।


57

हुक्मरान तो अक्सर अवाम की ताकत तौलता है,
सियासतदार काँपे जब अवाम का खून खौलता है।

सहने वाले हैं अगर तो ही जुल्म ढाने वाले भी होते,
अवाम ठान ले तो हुक्मरानों का सिंहासन डोलता है।

आदमी अपने वोट की कीमत को पहचानो भला,
जम्हूरियत में सबसे ऊपर अवाम की ताकत बोलता है।

संसद विधान के हुक्मरानों को सोच समझ के चुनना,
बाअसर रहनुमाई ही अवाम के हित की बात सोचता है।

यकीनन संसद और विधान का रास्ता ही ‘बृजेश’
अब अवाम की किस्मत का ताला खोलता है।


58

वतनफरोशों के कैद में तड़पती बन्दिनी माँ भारती।
हमें शिवा छत्रपति की खड्ग भवानी सदा पुकारती।

सितम बहुत सह लिया अब और बर्दाश्त करना नामर्दगी,
आतंकियों का अंत करने वतनपरस्त जवानी उफां मारती।

दहशतगर्दों ने बेगुनाहों को आज नहलाया है उनके ही खूं से,
मजलूमों के कल्तेआम पे भारत की आत्मा चीत्कारती।

हिन्दुस्तां को तबाह कर देगी अब जरा सी भी गफलत,
सरहद पे सतर्क रहना जवानों शपथ देती माँ भारती।

सरफरोश वतनपरस्तों के बलिदान की कसम है ‘बृजेश’,
वतन के दुश्मनों को रौंद दो, रणचण्डिका हुंकारती।


59

पहरेदार जम्हूरियत का कलमकार होना चाहिए,
जमीर कलमकार का दमदार होना चाहिए।

शायर, कवि, पत्रकार हो या सियासतदार हो,
न महज खुदगरजी का कारोबार होना चाहिए।

दोहरे चरित्र ने हिन्दुस्तान का बंटाधार किया,
सिर्फ लफ्फाजी नहीं, देश का वफादार होना चाहिए।

दूसरों को सीख देना अच्छी बात है, मगर खुद,
हिफाजत पर मुल्क का पहरेदार होना चाहिए।

दूसरों के दुःख दर्द बया करना ही काफी होता नहीं,
कलमकार का संवेदना से सरोकार होना चाहिए।

कलम के सिपाहियों को सीना ताने अड़ना है,
नहीं सियासतदारों का गुलाम, चाटुकार होना चाहिए।

शराब शबाब के गुलामों को धिक्कारना होगा,
कलमकार गैरतमंद जिगरवाला, खुद्दार होना चाहिए।

टुकड़ों पर बिकने वाले जमीरों का क्या काम यहाँ,
लालची रिश्वतखोर, नहीं कलमकार होना चाहिए।

दूसरों के गम बाँटना जिन्दगी का मकसद बने,
दीन मजलूमों का उसे खिदमतगार होना चाहिए।

शायरी कविता महज लफ्फाजियों का खेल होता नहीं,
सर्वोपरि राष्ट्रहित मकसदे कलमकार होना चाहिए।

कलम के सिपाही की ईमान अमोल निधि होती,
बिकने वाला, न हरगिज कलमकार होना चाहिए।

निगहबान बने अवाम और मुल्क के हालात की,
ना सावन के अंधे सा खुशफहमी का शिकार होना चाहिए।

लच्छेदार भाषण हो या कवित्त गीत हो, ‘बृजेश’,
कहने वाला खुद भी पानीदार होना चाहिए।


60

तूफां के पहले की सी लगती, ए तेरी सख्त सर्द खामोशियाँ।
अंदर तक हिलाकर रख देती, ए तेरी सख्त सर्द खामोशियाँ।

तुम रूठ जाते हो अगर तो मेरा नसीब भी रूठ जाता सनम,
मेरे दुश्वारियों की सबब बनती, ए तेरी सख्त सर्द खामोशियाँ।

कभी मैं रूठा तूने मनाया, यूँ जिन्दगी का सफर चलता रहा,
अब मैं मनाऊँ तू मगर न मानती, ए तेरी सख्त सर्द खामोशियाँ।

मेरी जिन्दगी में दिलवर हरदम खुशियाँ बरसाते रहे तुम,
सनम आज क्यों दम निकालती, ए तेरी सख्त सर्द खामोशियाँ।

क्षणिक रूठना फिर मान जाना जिन्दगी का मजा होता, मगर
विकट लम्बी बनी सजा सी लगती, ए तेरी सख्त सर्द खामोशियाँ।

मेरी खताओं पर धूल ही डालते रहे दिलबर तुम हरदम,
फिर आज क्या बात है जो नहीं टूटती, ए तेरी सख्त सर्द खामोशियाँ।

माफी गुनाह की चाहता हूँ मगर लबों पर लफ्ज सही आते नहीं,
बेपनाह चाहता फिर भी नहीं खुलती, ए तेरी सख्त सर्द खामोशियाँ।

आज क्यूँ महरूम हूँ मैं तेरी दरियादिली, इनायत से दिलवर,
आगोश में लेने को क्यों नहीं कहती, ए तेरी सख्त सर्द खामोशियाँ।

तैश का गुब्बार निकाल ले बेशक, ए तेरा हक होता है,
मगर क्यों दिल को चीर कर रखती, ए तेरी सख्त सर्द खामोशियाँ।

इतनी बड़ी दुनिया में दिलवर तेरे सिवा मेरा कोई नहीं,
यकीनन जीते जी मुझे मार डालती, ए तेरी सख्त सर्द खामोशियाँ।

जान बूझ दिल दुखाने का, इरादा कतई नहीं होता ‘बृजेश’,
तलबगार हँू फिर भी माफी नहीं देती, ए तेरी सख्त सर्द खामोशियाँ।


61

कभी शान तो कभी जिन्दगी शर्मिन्दगी है।
आदमी समझे न वो पहेली जिन्दगी है।

सुख में भी दुख पाता तो मस्त रहता कोई,
ए महज अपनी-अपनी सबकी पसंदगी है।

क्या-क्या रूप हमने देखे हैं इस जिन्दगी के,
चिन्ता में डूबती तो कभी मस्ती मलंग की है।

कभी परमार्थ तो कभी स्वार्थ में लिपटती जाती,
शिव के रूप में दिखती तो कभी अनंग भी है।

न जाने कितने जिन्दगी के रूप दिखते यहाँ,
दिखती कभी भोज तो कभी गंगू रंक भी है।

‘बृजेश’ पतझड़ सी मुरझाई रहती ए कभी-कभी,
जिन्दगी बन जाती कभी मदमस्त बसंत भी है।


62
हर किसी की ख्वाईश यहाँ मुकम्मल जहां होना।
दामन में चाँद सितारे और समूचा आसमां होना।

मगर सबसे ज्यादे मुश्किल होती है जहाँ में अक्सर,
किसी आदमी की कोशिश, मुकम्मल इन्सां होना।

आधे अधूरे इन्सां के फितरत पे होती हैरानगी,
हर जगह मुकम्मल खुशियाँ तलाशते हैरां परेशां होना।

हमने देखा यहाँ अक्सर हसरतों के बोझ तले दबकर,
अच्छे खासे कद्दावर इन्सां का हल्का होना।

आजकल हमें हैरतों में डालता है देख अक्सर,
यहाँ यूँ ही किसी को किसी पर मेहरबां होना।

‘बृजेश’ काम निकलते पीठ दिखाते देखा है हमने,
देख हैरत यूँ ही किसी की चाह नागहां होना।


63

जोश में उबलती वतनपरस्त जवानी को खोजना पड़ता है।
इस जमाने में किसी मुकम्मल रवानी को खोजना पड़ता है।


वासनाओं के फेहरिश्तों तले कद इन्सां का दब जाता यहाँ,
जहाँ में अब किसी आदमकद आदमी को खोजना पड़ता हैं

फरेबों के मकड़जाल में अक्सर फंसते जाता इन्सां,
आज किसी पानीदार कहानी को खोजना पड़ता है।

लगा दे मादरे वतन पर अपनी जिन्दगी सारी,
आज ऐसी वतनपरस्त जिन्दगानी को खोजना पड़ता है।

सिमटते सिकुड़ते जमीर लापता हो गये ‘बृजेश’,
यहाँ खुर्दबीन से अब खुद्दारी को खोजना पड़ता है।



64.
मेरे आंगन को खुशियों से महकाया है हरदम।
दाम्पत्य जिम्मेदारियों का दायित्व उठाया है हरदम।

तुमने हक की बात न की कभी ए मेरे हमनशीं,
इस जिन्दगी में फकत फर्ज ही निभाया है हरदम।

मेरी जिन्दगी के संघर्ष-सफर में हमसफर बनकर,
हमदम तूने हर कदम मेरा साथ दिया है हरदम।

डगर जो मैंने चुनी थी वो कील कांटों से भरी थी,
कीमत मेरे खुद्दारी की तूने चुकाया है हरदम।

जो फर्ज था तेरे प्रति संघर्ष-जुनून में निभा न सका,
न शिकवा न गिला किया फकत गम पीया है हरदम।

‘बृजेश’ बींध गये खारों से दामन, ऊफ न की मगर,
सात फेरों का वचन शिद्दत से निभाया है हरदम।

2 comments:

  1. होली है
    होली की हार्दिक शुभकामनायें
    manish jaiswal
    Bilaspur
    chhattisgarh

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