Friday, May 6, 2011

मुक्‍ताहार 2

मुक्तक काव्य या कविता का वह प्रकार है जिसमें प्रबन्धकीयता न हो। इसमें एक छन्द में कथित बात का दूसरे छन्द में कही गयी बात से कोई सम्बन्ध या तारतम्य होना आवश्यक नहीं है। कबीर एवं रहीम के दोहे; मीराबाई के पद्य आदि सब मुक्तक रचनाएं हैं। हिन्दी के रीतिकाल में अधिकांश मुक्तक काव्यों की रचना हुई। 
डॉ बृजेश सिंह ने अध्यात्म, जीवन-दर्शन, मां, राष्‍ट्रीयता, ि‍जन्‍दगी, सि‍यासत, पति‍ पत्‍नी व अन्य वि‍षयों पर सैकड़ों मुक्‍तक लि‍खे हैं.......कुछ प्रस्‍तुत हैं इस पोस्‍ट पर.........

मुक्ताहार
अध्यात्म, जीवन-दर्शन व अन्य

51
भीतर का आदमी हवस तले दब गया लगता है।
इन्सां का जमीर कब का जाने मर गया लगता है।
‘बृजेश’ उसूलों की बातें सिर्फ कहने सुनने की,
अब आदमी के पहुँच से बहुत दूर गया लगता है।
52
उपर वाले की रहमत से सदाकत नसीब होता है।
वो खुशकिस्मत जिसे शराफत नसीब होता है।
नेकी के बंदों को ही दुनिया में अक्सर ‘बृजेश’,
कायनात का उपर वाले का रहमत नसीब होता है।
53
किसी-किसी को ही कुदरत ए ईनाम देता है।
बड़ी मुश्किल से वो शोहरत और नाम देता है।
तिकड़म या मेहनत से अक्सर दौलत मिल जाती यहाँ,
मगर बिरले को ही जमाना इज्जत और मान देता है।
54
बिरले ही किसी को सदाकत का लज्जत नसीब होता है।
बड़ी किस्मत से अवाम का दिली इज्जत नसीब होता है।
इधर उधर की तिकड़म से दौलतमंद बन जाते लोग भले ही,
मगर खुशकिस्मती से बुलंद जमीर का दौलत नसीब होता है।
55
किसी कोने में सिमटती तो कभी बुलंदी के आसमान होती है।
देखते ही देखते कभी ए हादसों का मेहमान होती है।
‘बृजेश’ कभी मधुमास के शीतल बयार सी होती जिन्दगी,
तो कभी जिन्दगी फकत एक दर्द का तूफान होती है।
56
कभी दिल को देती सुकून ए शीतल बयार होती है।
कभी जिन्दगी मस्त बसन्त की बहार होती है।
मखमली सुख के सेज पे लेटी अलसाई रहती,
‘बृजेश’ कभी जिन्दगी की सेज फकत खार होती है।
57
तेरे रिश्ते से फकत जख्म दर जख्म मिला है।
तेरी मतलबपरस्ती से सितम दर सितम मिला है।
‘बृजेश’ ए ही फजल क्या कम है सितमगर तेरा,
तेरी हर सितम से गजल दर गजल हरदम मिला है।
58
खुदगर्जी में अपनों को भी लूटने उतावले लगते हैं लोग।
कथनी कुछ करनी कुछ और ऐसे भी दोगले होते हैं लोग।
बाहर से बुलंद कद बस देखने भर को होता है मगर,
‘बृजेश’ अंदर ही अंदर कई खोखले होते हैं लोग।
59
इंसां को कामयाबी की सही पहचान होना चाहिए।
नेक इरादों का जिन्दगी में गुणगान होना चाहिए।
‘बृजेश’ बुलंद इरादे ही काफी नहीं जिन्दगी में,
शराफत और सदाकत का भी स्थान होना चाहिए।
60
कर्त्तव्य की कसौटी पर आदमी को कसता है वक्त।
जिन्दगी का मकसद न समझने वाले को कोसता है वक्त।
‘बृजेश’ कुदरत की कसौटी पर खरा उतरना ही जिन्दगी,
कुदरत के इम्तिहानों से डरने वाले पर हंसता है वक्त।
61
गरूर तिनके सा उड़ेगा वक्त की आंधी में मगरूर तेरी।
वक्त को मुट्ठी में करने का दावा यकीनन ए गुरूर तेरी।
वक्त की आंधी को कौन रोका है या कौन रोकेगा कभी,
है भलाई इसी में, कह दो कुदरत से, हर अदा मंजूर तेरी।
62
दुनिया अपने कदमों में सोचना फजूल ए आदमी।
दौलत ताकत का घमंड हिमाकत मगरूर ए आदमी।
मुंह की खाता वो भी, झुकता था जिनके कदमों तले जमाना,
‘बृजेश’ पलक झपकते टूट जायेगा तेरा गुरूर ए आदमी।
63
विकास की सम्भावनाओं का सुविस्तृत आकाश होता है।
मनुज नहीं महज परिस्थितियों का दास होता है।
‘बृजेश’ जिन्दगी की जंग वो अंततः जीत ही जाते,
जिनमें प्रबल पुरूषार्थ दृढ़ आत्मविश्वास होता है।
64
कहते ए कुदरत का तोहफा नायाब होता है।
स्वस्थ सफल प्रलंब जीवन लाजवाब होता है।
लंबी आयु में अपनों से बिछुड़ना कुदरती हकीकत,
उम्रदराज जीकर सुख पाना महज ख्वाब होता है।
65
वो मुकद्दर का सिकन्दर जो खुद की जान को तैयार रखा है।
दुनिया के सरायखाने से जाने, अपने सामान को तैयार रखा है।
प्रियतमा मौत तू नाहक ही सकुचा रही शरमा रही क्यों,
‘बृजेश’ खुद को तेरे संग राजी खुशी प्रस्थान को तैयार रखा है।
66
गमले के पौध सा सिमट गया हद कद्दावरों के।
कैसे बोनसाई हो गये अब कद कद्दावरों के।
फजूल है इनसे साये की उम्मीद रखना ‘बृजेश’,
दीदार मुश्किल हो गये गैरतमंद कद्दावरों के।
67
आज सच्चाई पर किसी का दाँव नहीं होता।
अब कहावतों की बात कि झूठ का पाँव नहीं होता।
सच्चाई घुटनों के बल घिसटती रहती ‘बृजेश’,
सच तो यह कि आज सच के लिए कोई ठाँव नहीं होता।
68
अंग अंग उमंग झलकता खुशियों की चहक मेरे उपवन में।
मन मयूर सा नाचा करता तू आई जब से जीवन में
तेरा एक एक चितवन बहार लाए मेरी जिन्दगी में,
मुस्कान निखरता जब उल्लास की कोंपल फूटे मन में।
69
भूल सुधार करते अहमियत देना चाहिए काम को।
अपनी नियमित समीक्षा करते रहना चाहिए इंसान को।
इस जहां में उसे भटकना नहीं कहा जाता ‘बृजेश’,
आ जाए घर अगर सुबह का भूला, शाम को।
70
अरमानों की गठरी लादकर दुनिया से फना हो जाते हैं लोग।
अंतिम अंजाम सबका एक काल के गाल में समा जाते हैं लोग।
विश्व विजेता का सपना लिए सिकन्दर भी चल बसा ‘बृजेश’,
सब छोड़ यहीं हाथ पसारे जहाँ से विदा हो जाते हैं लोग।
71
इन्द्रधनुष सी सतरंगी जिन्दगानी लगने लगी है।
गमजदा जिन्दगी एक बीती कहानी-लगने लगी है।
हमख्याल तुम सा हमसफर मिला खुशकिस्मती ‘बृजेश’,
हमनशीं संग सफर जिन्दगी का सुहानी लगने लगी है।
72
जैसी सूरत वैसी सीरत की धनी ए मेरे हमनशीं।
मैं खुशकिस्मत जो तू मेरी दिलरूबा बनी ए मेरे हमनशीं।
हम ख्याल हमसफर बन जिन्दगी को रोशनी दी ‘बृजेश’,
तू दमकते हीरे की लगती कन्नी ए मेरे हमनशीं।
73
कुदरत की संगीत लहरियों पे मन ही मन गुनगुनाता हूँ मैं।
मेरे मीत अपनी प्रीत के गीत खुद को सुनाता हूँ मैं।
प्रिये प्रेम की गहराई का थाह मिलता नहीं ‘बृजेश’,
तेरे प्रीत के गहरे समन्दर में गोते लगाता हूँ मैं।
74
माना जिंदगी को सरस बनाने में जरूरी हास-परिहास होता है।
मगर मजाक वही अच्छा जिसमें छुपा अपनत्व का प्रयास होता है।
सब जानते किसी का उपहास ‘महाभारत’ बन जाता ‘बृजेश’,
रक्त रंजित इतिहास में छुपा अक्सर किसी का उपहास होता है।
75
कौन जानना चाहता है मनीषियों के निष्कर्षों को आज?
कौन सुनना चाहता है जिन्दगी के फलसफों को आज?
आत्मिक उत्थान को महत्व मिलता नहीं ‘बृजेश’,
अहमियत देते हैं सभी, भौतिक उत्कर्षों को आज।
76
समय सबसे कीमती वक्त की कीमत पहचान लो।
पुरुषार्थ के अलावे कोई राह नहीं यह जान लो।
हाथ पर हाथ धरे बैठना कायरों का काम ‘बृजेश’,
किस्मत को कोसना छोड़ कुछ करने की ठान लो।
77
कभी बाहुबलियों को भी गिड़गिड़ाते देखा है हमने।
अपनों पर बन आती तो हिटलरों को फड़फड़ाते देखा है हमने।
दूसरों की जिन्दगी में अंधेरा कायम करने वाले हैवान को भी,
‘बृजेश’ अपनों के वास्ते उजाले की दुआ माँगते देखा है हमने।
78
अच्छे बुरे कर्मों के अलावे सब धन साधन यहीं छोड़ना होता है।
देह के आगे आत्मा की सुनता नहीं, ए आदमी का रोना होता है।
नेकी की गठरी उठा के चलने होड़ लगती फरिश्तों में ‘बृजेश’,
मगर बदी की गठरी लिए शैतान तक को खुद ही ढोना होता है।
79
समाज से परे न सत्य का कोई अर्थ होता है।
संसार का सबसे बड़ा धर्म परमार्थ होता है।
जो बन सके दुनिया के बीच रह के करना है ‘बृजेश’,
जो समाज के काम न आये वो व्यर्थ पुरुषार्थ होता है।
80
रहनुमा बनाया जो तुझको, मजबूरी हमारी है वो।
फकत मेरे जिन्दगी की सबसे बड़ी लाचारी है वो।
अपने रहमत की कीमत चाही है मुझसे जो तुमने,
मेरे किरदार पे पड़ता हरदम भारी बहुत भारी है वो।
81
शरीर कुछ और नहीं महज दो मुट्ठी खाक होता है।
अपनी देह पे नाहक ही आदमी को नाज होता है।
आत्मा ही होती सब कुछ आदमी की मगर ‘बृजेश’,
रूह को भूलकर उसके जीने का अजब अंदाज होता है।
82
सत्कर्मों पर पक्का इरादा जिसका, महान होता है।
बुलंद आदमी के पीछे अक्सर सारा जहान होता है।
कर्मठता के साथ कामयाबी का गहरा संबंध ‘बृजेश’,
हौसला बुलंद हो तो मुट्ठी में जमीं आसमान होता है।

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