Friday, March 18, 2011

निष्कर्ष - गज़ल संग्रह - भाग 4

गज़ल क्रमांक 41 से 64
41

न जरूरी ये हरदम कि कर भला तो भला होता है,
कभी होम करते भी किसी का हाथ जला होता है।

इन्सान की जिन्दगी भी क्या अजब शै होती,
सुकून की मस्ती तो कभी दर्द का जलजला होता है।

कई रिश्तों की अगन में झुलस जाता आदमी,
फूँककर भी छांछ पीता जो दूध का जला होता है।

मेहनत ही कामयाबी का सूत्र होता नहीं हर बार,
कर्म और भाग्य में अक्सर मुकाबला होता है।

‘बृजेश’ साथ देकर भी अपनों से चोट खाते कभी,
कौन जाने कब क्या किसी के दिल में पला होता है।


42
जिन्दगी की राह पर मनुज को मुस्कुराना चाहिए,
होठों पर हरदम मस्ती का तराना चाहिए।

दिखाया जा चुका बहुत मौत का खौफ यहाँ,
‘बृजेश’ अब जिन्दगी के गीत गाना चाहिए।

बेशुमार दौलत कमा के देख लिया आदमी,
अब सुकून का अनमोल धन कमाना चाहिए।

बहुत हो चुका मजहबी सियासी खून खराबा,
अब अमन की नेक राह अपनाना चाहिए।

फसाद के ईंधन पड़ रहे सियासी भठ्ठी में खूब,
‘बृजेश’ आगे बढ़ नफरत की आग बुझाना चाहिए।


43
अफसोस अवाम की संयम का न टूटता तटबंध लगता है।
जन गण मन स्वतंत्र चिंतन पर आज भी पाबंद लगता है।

कसम ली भी जम्हूरियत के पहरूओं ने अवाम के खिदमत की,
करतूतों से दिखता मगर बर्बादी का लिया सौगंध लगता है।

पट्टी मुँह पे बंधी लाचार जम्हूरियत सिसकते रहती हरदम,
मुल्क के रहबरों ने ही अब रहजनी का किया प्रबंध लगता है।

अवाम के हसरतों का चीरहरण जाने कब से चल रहा यहाँ,
आज जम्हूरियत का नख शिख पूरा बदल गया रंग, लगता है।

सदाकत मारे मारे फिरती दरबदर भटकते रहती यहाँ,
आज सियासतदार और जुर्म में हुआ अनुबंध लगता है।

सियासत पे काबिज रहने के वास्ते ताकत वहशत की जरूरत,
बाहुबलियों के बिना सियासत का आज अधूरा जंग लगता है।

सियासी फिजाओं की ए क्या तस्वीर हो गयी आज ‘बृजेश’
सियासत का दहशत और वहशत से गहन संबंध लगता है।


44

न पता आदमी को कहाँ को जाना कहाँ से आना है,
माना आवागमन है निरंतर, मगर रास्ता अनजाना है।

हर रूह की बस एक ही कहानी होती यहाँ ‘बृजेश’,
अनन्त से आना है उसे फिर अनन्त में ही समाना है।

जीव शिव एक तत्व अद्वैत का भेद मनीषियों ने पहचाना है,
जीव से शिव का रिश्ता शाश्वत होता पर भेद अनजाना है।

यहाँ आत्मा को भूल सब महत्व देते हैं नश्वर शरीर को,
मुट्ठी की रेत सी होती जिन्दगी, पल में फिसल जाना है।

सब जानते तय अंजाम यहाँ हर देह का बस एक ही,
ए तन है माटी का अंततः उसे माटी में मिल जाना है।

अजर अमर है जीवात्मा अंश परमात्मा का ‘बृजेश’
आत्मा है शाश्वत चिरंतन यही वेद शास्त्रों ने माना है।


45

किसी किसी को ही ऐसी बुलंद किस्मत नसीब होती है,
बड़ी मुश्किलों से उपर वाले की ए रहमत नसीब होती है।

वो ही जिन्दगी कामयाब जिन्दगानी कहाती जिसे,
सब कुछ वतन पे कुर्बानी की लज्जत नसीब होती है।

प्रताप शिवा छत्रा कुंवर जफर के मानिंद शहीदों को ही,
अवाम व मादरे वतन का बेपनाह मुहब्बत नसीब होती है।

अवाम क्या कायनात भी जार-जार रोती हो जिसके जाने पे,
जाबांज सरफरोश शहीद को ऐसी मय्यत नसीब होती है।

खुशकिस्मत वतनपरस्त को मादरे वतन पे मर मिटने की,
‘बृजेश’ अनमोल तोहफा शहादत नसीब होती है।


46
मुल्क के दुश्मनों से लड़ने का भाव दक्षिण वाम में होना चाहिए।
राष्ट्रहित सर्वोपरि की सदाएं हर सुर तान में होना चाहिए।

पीठ पे वार सहते सहते छलनी हो गया वतन कब,
अब जंग आर-पार की खुले मैदान में होना चाहिए।

‘बृजेश’ वतनपरस्ती का जज्बा हर हिन्दुस्तानी अवाम में,
सिख क्रिस्तान हिन्दू मुसलमान में होना चाहिए।

दहशतगर्द को दहशतगर्द कहने की हिम्मत आज,
अपने मुल्क के समूचे इन्सान में होना चाहिए।

वतन के वास्ते कुर्बानी का जज्बा भरने का दम,
मुल्क के कलमकारों के कलाम में होना चाहिए।

अमन के दुश्मनों के अरमान रौंद देंगे, ए फरमान,
‘बृजेश’ लाल किले के हर पैगाम में होना चाहिए।


47

न इसका आदि होता है न इसका अंत होता है,
खुद की वासनाओं के आगे आदमी पस्त होता है।

सात समन्दरों का पानी भी कम पड़ता बुझाने को इसे,
आदमी में जब दावानल तृष्णा का प्रज्ज्वलंत होता है।

अपनी हवस के आगे बेबस हो जाता है आदमी,
तृष्णा खुदगर्जी इन्सान के माथे का कलंक होता है।

जिन्दगी यूं कट जाती एंड़िया रगड़ते-रगड़ते यकीनन,
आदमी को जकड़ ले अगर तो साथ मृत्यु पर्यंत होता है।

तृष्णा की प्यास कभी बुझाए न बुझती ‘बृजेश’,
कहतें हैं कि प्यास तृष्णा का अनन्त होता है।


48

कुदरत से मिली किसी खुशी को अधूरा छोड़ भागता है आदमी,
एक मिली नहीं कि दूसरी तमन्ना के पीछे हाथ धो दौड़ता है आदमी।

ऊपर वाले ने रहमत कर जिन्दगी का अमोल तोहफा दिया,
मगर मृगमरीचिका के हसीं भ्रम में जिन्दगी गंवाता है आदमी।

आदमी दौलत को नहीं दौलत आदमी को ही भोगती अक्सर,
भौतिक सुख सुविधाओं का गुलाम रहता है आदमी।

वासनाएं दिन ब दिन बढ़ती उफनती रहती इन्सां की,
कामनाओं की चाहतों में दर ब दर भटकता है आदमी।

‘बृजेश’ अक्सर एक खिलौने से मन उब जाता अगर तो,
नई दूसरी कई कई हसरतों का दामन थामता है आदमी।


49

भाग्य भरोसे बिन पतवार नैया पर बहते ही जा रहे।
हाथ पर हाथ धरे समय की धार पर कटते ही जा रहे।

वक्त को हाथ में समझे मगर मुठ्ठी की रेत सा फिसलता रहा,
वक्त को हम छलते रहे, वक्त के दूत दिन रात छलते ही जा रहे।

घात प्रतिघातों का दौर चलता ही रहता यहाँ हरदम,
गुजरा वक्त आता न कभी लौट के, हाथ बस मलते ही जा रहे।

वक्त का मोल अक्सर समझते नहीं, सदाकत से वास्ता रखते नहीं,
तन शिथिल हो रहा, काल के ज्वाल में पल-पल जलते ही जा रहे।

गुरूर करना यकीनन आदमी की नादानी कहलाती जहां में,
‘बृजेश’ काल व्याल की गाल पल-पल जकड़ते ही जा रहे।


50

अपनी लतों से अक्सर हार जाता है आदमी,
अपनी हदों से अक्सर बाहर जाता है आदमी।

हाथ पर हाथ धरे बैठा कहता कि मस्ती में हूँ मैं,
फाकामस्ती की तोहमत जमाने पर लगाता है आदमी।

उपर वाले ने हर शख्स को मौका दिया उपर उठने का,
झूठी शान के पीछे रोजी रोटी को ठोकर मारता है आदमी।

कोई-कोई बना लेते है यहाँ अपनी ही एक दुनियाँ,
घर बाहर की तमाम जिम्मेदारियाँ बिसारता है आदमी।

पास में धेला नहीं शौक रईसों सी पाले ‘बृजेश’,
अक्सर अपनी चादर से बाहर पैर पसारता है आदमी।


51

हसीं हसरतों के हश्र से आज इन्सां हैरान है आज।
कद सिमटते देख अपने अब इन्सां परेशान है आज।

जिन्दगी भर खुशियों को खोजता खंगालता,
मृग मरीचिका से सुख पे इन्सां हलाकान है आज।

रेत की दीवार सा ढहता ही जा रहा हौसला,
बजूद बचाने वास्ते दे रहा इन्सां इम्तिहान है आज।

जमीर सिमटता जा रहा दिन ब दिन ‘बृजेश’ अब,
उम्र ढलती जा रही मगर वासना-ए-इंसां जवान है आज।

इन्सानी हवस का न ओर-छोर दिखता कहीं,
जमीर पाताल और ख्वाईश-ए-इंसां आसमान है आज।

रोटी कपड़ा मकान मकसद जिन्दगी का ‘बृजेश’
बन गया अपनी अंतहीन चाहतों का इंसां गुलाम है आज।


52

कभी गिरे हुए देवता सा दिखता है इंसान,
तो कभी उठे हुए चौपाया सा लगता है इंसान।

देवत्व रह-रह के अंदर हिलोरें लेते रहता कभी,
ऋषि-मुनि आलिमों सा महकता है इंसान।

पशुओं की आदतें कई छुड़ाये न छूटती कभी,
तभी मृग मरीचिका में भटकता तड़पता है इंसान।

कभी देवता और पशु दोनों की अच्छाइयों को लेता,
कभी दोनों ही बुराइयों की शै में बहकता है इंसान।

गाफिल मौज-मस्ती मकसद होता कभी ‘बृजेश’,
कभी ऋषि मनीषी औलियों सा जागते रहता है इंसान।


53

कई रातों की जब नींद में पड़ती है खलल,
तब जाकर कहीं एक गीत बनती है गजल।

मन के अंदर का जलजला झकझोरता जब,
दर्द से दो चार होने की जिद बनती है गजल।

तूफां गम का उफां लेता है जब कभी,
इन्सां के अंदर की टीस बनती है गजल।

जब हमदम से मिलने के रास्ते सब बंद होते,
तब किसी की बेबसी की खीस बनती है गजल।

अपनों से बिछड़ने के दर्द की इंतिहा होती,
हमनशीं से मिलने की कशिश बनती है गजल।

लावा जब गम का फूट निकलने को हो आतुर,
‘बृजेश’ दिल के भीतर की पीर बनती है गजल।


54

कई-कई रूप अब बदल के आती है गजल,
आज सतरंगी साँचे में ढल के आती है गजल।

ए कभी जफर का हमसफर बनती ‘बृजेश’
लबों पे दर्द भरे गाने बन जाती है गजल।

खुसरो, दाग, दुष्यंत के लबों पे सजती सँवरती,
आज हिन्दुस्तानी ढाँचे में ढलती है गजल।

अब गजल महज इश्क के दीवानों की सदाएँ नहीं,
आजादी के दीवानों की भी ताने सुनाती है गजल।

हुस्न की मलिका की लटों में उलझ जाती कभी,
कभी सूफियों के मस्त कलामों को महकाती है गजल।

महलों के ख्वाबों में अलसाई सी रहती कभी,
तो कभी गरीब मजलूमों के दर्द बताती है गजल।

ए जहालत पे जम के फटकार लगाती कभी,
कभी इश्क की दिवानी बन इठलाती है गजल।

बिस्मिल, अशफाक रोशन की ताकत बनती कभी,
मस्ती के वतनपरस्ती के तराने सुनाती है गजल।

तासीर इसकी पाक गंगा जमुना सी लगती
जिस धरती से गुजरती रच बस जाती है गजल।

ए गजल तेरे कई रूप देखे है वक्त ने ‘बृजेश’,
वक्त पे जंगे आजादी के तराने कहती है गजल।


55

अंगार खुदगर्जी के बस बरसते ही जा रहे अब,
नाते-रिश्तों के आइने सब दरकते ही जा रहे अब।

‘बृजेश’ देख खलता रिश्तों का खोखलापान,
रिश्तों के सत्त्व कैसे रिसते ही जा रहे अब।

अपनों की दुश्वारियाँ दूर करना बात अब दूर की,
संवेदना के स्रोत सब सूखते ही जा रहे अब।

स्वार्थों में अंधा हो दूसरों की सोचता ही नहीं,
गले खुदगर्जियों के फाँस कसते ही जा रहे अब।

कुर्बानियों की बात महज कहानियों में मिलती ‘बृजेश’,
दिन ब दिन आदमी के कद सिमटते ही जा रहे अब।


56

बात ए कि अपने ही मुझसे बेखबर हो गये अब,
अफसोस अपने ही कूंचे में बेअसर हो गये अब।

खूं पसीने से बनाया घर अपना सा लगता नहीं,
‘बृजेश’ अपने ही आशियाने में बेघर हो गये अब।

जिन्दगी जिन पे लगाई आज अपने न रहे वो,
अपने ही निजाम से बेदखल हो गये अब।

कल तक चलता था सिक्का वहाँ अपने ही नाम का,
कभी बा अकल थे मगर बे अकल हो गये अब।

जिनको सींचा उनका शिकार होना मुकद्दर अपना,
‘बृजेश’ जो बा अदब थे कैसे बे अदब हो गये अब।


57

हुक्मरान तो अक्सर अवाम की ताकत तौलता है,
सियासतदार काँपे जब अवाम का खून खौलता है।

सहने वाले हैं अगर तो ही जुल्म ढाने वाले भी होते,
अवाम ठान ले तो हुक्मरानों का सिंहासन डोलता है।

आदमी अपने वोट की कीमत को पहचानो भला,
जम्हूरियत में सबसे ऊपर अवाम की ताकत बोलता है।

संसद विधान के हुक्मरानों को सोच समझ के चुनना,
बाअसर रहनुमाई ही अवाम के हित की बात सोचता है।

यकीनन संसद और विधान का रास्ता ही ‘बृजेश’
अब अवाम की किस्मत का ताला खोलता है।


58

वतनफरोशों के कैद में तड़पती बन्दिनी माँ भारती।
हमें शिवा छत्रपति की खड्ग भवानी सदा पुकारती।

सितम बहुत सह लिया अब और बर्दाश्त करना नामर्दगी,
आतंकियों का अंत करने वतनपरस्त जवानी उफां मारती।

दहशतगर्दों ने बेगुनाहों को आज नहलाया है उनके ही खूं से,
मजलूमों के कल्तेआम पे भारत की आत्मा चीत्कारती।

हिन्दुस्तां को तबाह कर देगी अब जरा सी भी गफलत,
सरहद पे सतर्क रहना जवानों शपथ देती माँ भारती।

सरफरोश वतनपरस्तों के बलिदान की कसम है ‘बृजेश’,
वतन के दुश्मनों को रौंद दो, रणचण्डिका हुंकारती।


59

पहरेदार जम्हूरियत का कलमकार होना चाहिए,
जमीर कलमकार का दमदार होना चाहिए।

शायर, कवि, पत्रकार हो या सियासतदार हो,
न महज खुदगरजी का कारोबार होना चाहिए।

दोहरे चरित्र ने हिन्दुस्तान का बंटाधार किया,
सिर्फ लफ्फाजी नहीं, देश का वफादार होना चाहिए।

दूसरों को सीख देना अच्छी बात है, मगर खुद,
हिफाजत पर मुल्क का पहरेदार होना चाहिए।

दूसरों के दुःख दर्द बया करना ही काफी होता नहीं,
कलमकार का संवेदना से सरोकार होना चाहिए।

कलम के सिपाहियों को सीना ताने अड़ना है,
नहीं सियासतदारों का गुलाम, चाटुकार होना चाहिए।

शराब शबाब के गुलामों को धिक्कारना होगा,
कलमकार गैरतमंद जिगरवाला, खुद्दार होना चाहिए।

टुकड़ों पर बिकने वाले जमीरों का क्या काम यहाँ,
लालची रिश्वतखोर, नहीं कलमकार होना चाहिए।

दूसरों के गम बाँटना जिन्दगी का मकसद बने,
दीन मजलूमों का उसे खिदमतगार होना चाहिए।

शायरी कविता महज लफ्फाजियों का खेल होता नहीं,
सर्वोपरि राष्ट्रहित मकसदे कलमकार होना चाहिए।

कलम के सिपाही की ईमान अमोल निधि होती,
बिकने वाला, न हरगिज कलमकार होना चाहिए।

निगहबान बने अवाम और मुल्क के हालात की,
ना सावन के अंधे सा खुशफहमी का शिकार होना चाहिए।

लच्छेदार भाषण हो या कवित्त गीत हो, ‘बृजेश’,
कहने वाला खुद भी पानीदार होना चाहिए।


60

तूफां के पहले की सी लगती, ए तेरी सख्त सर्द खामोशियाँ।
अंदर तक हिलाकर रख देती, ए तेरी सख्त सर्द खामोशियाँ।

तुम रूठ जाते हो अगर तो मेरा नसीब भी रूठ जाता सनम,
मेरे दुश्वारियों की सबब बनती, ए तेरी सख्त सर्द खामोशियाँ।

कभी मैं रूठा तूने मनाया, यूँ जिन्दगी का सफर चलता रहा,
अब मैं मनाऊँ तू मगर न मानती, ए तेरी सख्त सर्द खामोशियाँ।

मेरी जिन्दगी में दिलवर हरदम खुशियाँ बरसाते रहे तुम,
सनम आज क्यों दम निकालती, ए तेरी सख्त सर्द खामोशियाँ।

क्षणिक रूठना फिर मान जाना जिन्दगी का मजा होता, मगर
विकट लम्बी बनी सजा सी लगती, ए तेरी सख्त सर्द खामोशियाँ।

मेरी खताओं पर धूल ही डालते रहे दिलबर तुम हरदम,
फिर आज क्या बात है जो नहीं टूटती, ए तेरी सख्त सर्द खामोशियाँ।

माफी गुनाह की चाहता हूँ मगर लबों पर लफ्ज सही आते नहीं,
बेपनाह चाहता फिर भी नहीं खुलती, ए तेरी सख्त सर्द खामोशियाँ।

आज क्यूँ महरूम हूँ मैं तेरी दरियादिली, इनायत से दिलवर,
आगोश में लेने को क्यों नहीं कहती, ए तेरी सख्त सर्द खामोशियाँ।

तैश का गुब्बार निकाल ले बेशक, ए तेरा हक होता है,
मगर क्यों दिल को चीर कर रखती, ए तेरी सख्त सर्द खामोशियाँ।

इतनी बड़ी दुनिया में दिलवर तेरे सिवा मेरा कोई नहीं,
यकीनन जीते जी मुझे मार डालती, ए तेरी सख्त सर्द खामोशियाँ।

जान बूझ दिल दुखाने का, इरादा कतई नहीं होता ‘बृजेश’,
तलबगार हँू फिर भी माफी नहीं देती, ए तेरी सख्त सर्द खामोशियाँ।


61

कभी शान तो कभी जिन्दगी शर्मिन्दगी है।
आदमी समझे न वो पहेली जिन्दगी है।

सुख में भी दुख पाता तो मस्त रहता कोई,
ए महज अपनी-अपनी सबकी पसंदगी है।

क्या-क्या रूप हमने देखे हैं इस जिन्दगी के,
चिन्ता में डूबती तो कभी मस्ती मलंग की है।

कभी परमार्थ तो कभी स्वार्थ में लिपटती जाती,
शिव के रूप में दिखती तो कभी अनंग भी है।

न जाने कितने जिन्दगी के रूप दिखते यहाँ,
दिखती कभी भोज तो कभी गंगू रंक भी है।

‘बृजेश’ पतझड़ सी मुरझाई रहती ए कभी-कभी,
जिन्दगी बन जाती कभी मदमस्त बसंत भी है।


62
हर किसी की ख्वाईश यहाँ मुकम्मल जहां होना।
दामन में चाँद सितारे और समूचा आसमां होना।

मगर सबसे ज्यादे मुश्किल होती है जहाँ में अक्सर,
किसी आदमी की कोशिश, मुकम्मल इन्सां होना।

आधे अधूरे इन्सां के फितरत पे होती हैरानगी,
हर जगह मुकम्मल खुशियाँ तलाशते हैरां परेशां होना।

हमने देखा यहाँ अक्सर हसरतों के बोझ तले दबकर,
अच्छे खासे कद्दावर इन्सां का हल्का होना।

आजकल हमें हैरतों में डालता है देख अक्सर,
यहाँ यूँ ही किसी को किसी पर मेहरबां होना।

‘बृजेश’ काम निकलते पीठ दिखाते देखा है हमने,
देख हैरत यूँ ही किसी की चाह नागहां होना।


63

जोश में उबलती वतनपरस्त जवानी को खोजना पड़ता है।
इस जमाने में किसी मुकम्मल रवानी को खोजना पड़ता है।


वासनाओं के फेहरिश्तों तले कद इन्सां का दब जाता यहाँ,
जहाँ में अब किसी आदमकद आदमी को खोजना पड़ता हैं

फरेबों के मकड़जाल में अक्सर फंसते जाता इन्सां,
आज किसी पानीदार कहानी को खोजना पड़ता है।

लगा दे मादरे वतन पर अपनी जिन्दगी सारी,
आज ऐसी वतनपरस्त जिन्दगानी को खोजना पड़ता है।

सिमटते सिकुड़ते जमीर लापता हो गये ‘बृजेश’,
यहाँ खुर्दबीन से अब खुद्दारी को खोजना पड़ता है।



64.
मेरे आंगन को खुशियों से महकाया है हरदम।
दाम्पत्य जिम्मेदारियों का दायित्व उठाया है हरदम।

तुमने हक की बात न की कभी ए मेरे हमनशीं,
इस जिन्दगी में फकत फर्ज ही निभाया है हरदम।

मेरी जिन्दगी के संघर्ष-सफर में हमसफर बनकर,
हमदम तूने हर कदम मेरा साथ दिया है हरदम।

डगर जो मैंने चुनी थी वो कील कांटों से भरी थी,
कीमत मेरे खुद्दारी की तूने चुकाया है हरदम।

जो फर्ज था तेरे प्रति संघर्ष-जुनून में निभा न सका,
न शिकवा न गिला किया फकत गम पीया है हरदम।

‘बृजेश’ बींध गये खारों से दामन, ऊफ न की मगर,
सात फेरों का वचन शिद्दत से निभाया है हरदम।

Tuesday, March 15, 2011

निष्कर्ष - गज़ल संग्रह - भाग 3

गजल क्रमांक 26 से 40
26

सारी दुनिया ने पस्त पड़ते देखा है ताकत के मगरूर सिकन्दरों को।
नहीं होती दो गज की जमीं भी मयस्सर कद्दावर हिटलरों को।

दुनिया अपने कदमों तले रौंदने का ख्वाब देखने वालों का,
‘बृजेश’ हमने देखा मुँह के बल गिरते बड़े बड़े मगरूरों को।

लोहा मानती थी दुनिया मगरूर रावण की राक्षसी ताकत का,
मगर लंका सोने की मटियामेट करते देखा तुच्छ रीछ बंदरों को।

देखा तैमूर गोरी गजनवी अब्दाली चंगेज इंसानियत के दुश्मनों को,
काँपती थी दुनिया देख हैवानियत व तबाही के खौफनाक मंजरों को।

यकीनन जुर्म और गुनाह की कभी लम्बी उम्र होती नहीं जहाँ में,
देखा थोड़े ही वक्त के बाद खत्म होते इन भयानक बवंडरों को।

धूल मिलते देखा हिन्दुस्तानी बजूद खत्म करने की फितरतों को,
दरिन्दों ने दुनिया को ओढ़ाने की कोशिश की दहशत के चादरों को।

कहते हैं ब्रितानी निजाम का आफताब नहीं डूबता था कभी ‘बृजेश’,
टापू तक सिमटते देखा, फिरंगी फतह करने वाले सात समन्दरों को।


27

हर आदमी की अपनी अलग कुछ न कुछ कहानी होती है।
दुनिया की कुछ तो कुदरत की दी कुछ परेशानी होती है।

कभी अपनों की मनमर्जी कभी किसी की खुदगर्जी को ढोना होता,
सबको जिन्दगी की कुछ न कुछ बड़ी कीमत चुकानी होती है।

इस दुनिया में अक्सर अपनों से मुँह की खानी होती है।
जिन्दगी में कईयों की दखलअंदाजी व मनमानी होती हैं

आपाधापी में यहाँ लटकी सलीब पर जिन्दगानी होती है।
दुश्वारियों में डालना महज अपनों की मेहरबानी होती है।

फल की आशा के बिना यहाँ फर्ज समझ बस करते चलो,
दिल से न कोई अहसान मानता ए महज मुजबानी होती है।

जिम्मेदारियों का बोझ ढोते-ढोते कंधे छिल जाते अक्सर
‘बृजेश’ कोल्हू के बैल सा चलते-चलते जिन्दगी गंवानी होती है।


28

आदमी को अपनी अंदरूनी ताकत का न थाह होता है।
इन्सां का हौसला बुलंद हो अगर तो वह फौलाद होता है।

अगर पक्का इरादा है तो वो क्या कर नहीं सकता,
इन्सां के पास संभावनाओं का अनन्त आकाश होता है।

इरादे को मजबूत पंख मिले अगर उड़ान में ऊँचास होता है।
कुदरत को भी फौलादी इरादे का हरदम तलाश होता है।

महज एक गाँधी काफी होता है मुकम्मल इंकलाब के लिए,
आदमी को अपने सदाकत की ताकत का न अंदाज होता है।

इन्सां का सच्चा रहबर उसका अंतर-आवाज होता है।
आदमी के कामयाबी का सूत्र खुद उसके पास होता है।

स्वार्थ की पगडंडी छोड़ परमार्थ के राजपथ पे चलने वाले जो,
‘बृजेश’ समूचे वतन को ऐसे वीर सपूत पर नाज होता है।


29

इन्सान सुकून पाने को दर बदर भटकता है।
आज यहाँ सच्चा आदमी किस कदर झुलसता है।

यकीनन दो पल भी ठहरना यहाँ मुश्किल होता,
सियासी फिजाओं से महज नफरत बरसता है।

जहाँ में शरीफों का सियासत से क्या वास्ता,
जुबां खोलने पर यहाँ कहर बरपता है।

अवाम को हिफाजत मय्यसर होती नहीं,
अब अमन चैन को गाँव शहर तरसता है।

सियासत के तंग गलियारों में हमने देखा,
सियासतदारों का कद यहाँ किस कदर सिमटता है।

सियासत के बिसात पर मोहरें लगती हैं सभी,
‘बृजेश’ सियासी चालों से फकत जहर टपकता है।


30

कभी दगा देता तो कभी धोखा खुद खाता है आदमी।
औरों की जिन्दगी को अक्सर नरक बनाता है आदमी।

जानता है करनी का फल भोगना पड़ता है, यहाँ मगर,
अपनी फितरतों से न कभी बाज आता है आदमी।

न चैन से रहता न दूसरों को रहने देने का इरादा,
नाहक ही अपनो से भी अक्सर रार बढ़ाता है आदमी।

पुरान और कुरान का असर जरा सा भी पड़ता नहीं इस पर,
जहालत में खुद तड़पता औरों को भी तड़पाता है आदमी।

दो दिन की होती जिन्दगी, कर्मों का फल होती नियति,
फिर भी खौफ कुदरत का नहीं खाता है आदमी।

दूसरों की रुसवाई का तमाशाई बनते-बनते ‘बृजेश’
जैसे खुद भी एक भद्दा तमाशा बन जाता है आदमी।


31

फसाद की फसल हर तरफ लहराने लगी है।
अमन की फसल सब तरफ मुरझाने लगी है।

बेगुनाहों के खूं से धरती हर तरफ तर बतर हो गयी,
यहाँ शैतानियत भी खाके अब चक्कर, शरमाने लगी है।

चमन की भाई चारे की पौध शाला सुखी बंजर सी लगती,
बहुतों को फिरकापरस्ती की अब नसल भरमाने लगी है।

वतनफरोशों के हाथो बिके चंद सियासतदारों के खौफनाक,
दुरभिसंधि की कहर वतन पर रंगत दिखाने लगी हैं

दहशतगर्दों की सियासत में बढ़ती दखलअंदाजी,
‘बृजेश’ मजलूम अवाम पर फकत कहर बरपाने लगी है।


32

पीछे छूट जाएगी भीड़-भाड़ इस दुनिया के मेले की।
जिन्दगी का आखिरी सफर सब जानते अकेले की।

जहाँ खड़ा उसे ही हद मान बैठा ए आदमी,
हालात खूँटे से बंधे चौपाये के जैसे तबेले की।

दो पल के इस मेहमां की जहालत तो देखो,
भारी जमीं घेर ली दुनिया के दो दिन के मेले की।

जरा सा भटका अगर तो भटकता ही गया,
आर पार का पता नहीं इस दुनिया के रेले की।

रूहानी सफर में खाली हाथ चलना भी मुश्किल,
‘बृजेश’ मगर भारी गठरी उठा ली झमेले की।


33

पूरब पश्चिम के बीच खत्म फासला होने को है।
किसमें कितना है दम अब फैसला होने को है।

लद गये दिन जब पिछड़ो में शुमार थे हम ‘बृजेश’
हिन्दुस्तान का सबसे आगे अब काफला होने को है।

दिन ब दिन हौसले का कारवां बढ़ता ही जा रहा,
अध्यात्म और विज्ञान में भी अब मुकाबला होने को है।

ज्यों ज्यों आगे विज्ञान बढ़ता वो अध्यात्म के करीब आता,
मजहबों की हठधर्मिता का हल मसला होने को है।

सदियों के गुलामी की जहालत यकीनन अब खत्म होने को ‘बृजेश’
दुनिया पीछे चलेगी हिन्दुस्तान के, यह जलजला होने को है।

तिजारत के बहाने जकड़े गये गुलामी के जंजीरों में हम,
‘बृजेश’ अब शिकारी ही शिकार खुद भला होने को है।


34

फिरकापरस्तों के हाथों बँट गया है हिन्दुस्तान अपना।
अपनी ही संतानों के हाथों सिमट गया है हिन्दुस्तान अपना।

पंजाब, सिन्ध बंग कट गया अपने ही चमन से,
मजहबी उन्माद की भेंट चढ़ गया है हिन्दुस्तान अपना।

जाने कब से दहशतगर्दों का अड्डा बनें पड़ोसी मुल्क,
फसादी जेहादियों का निशाना बन गया है हिन्दुस्तान अपना।

मुल्क में अमन-चैन का बसेरा न जाने कब से हटा,
सियासतदारों की खूनी रवायत में फँस गया है हिन्दुस्तान अपना।

‘बृजेश’ एक ही पुरखों की दोनों औलादें हैं मगर,
हिन्दू-मुसलमां के हाथों कट गया है हिन्दुस्तान अपना।


35

यहाँ बात की बात मगर कुछ भी नहीं।
रिश्ते तो दिखते जज्बात मगर कुछ भी नहीं।

खुदगर्जी के गर्त में ऐसे समाये लोग यहाँ,
देखने को कद्दावर ख्यालात मगर कुछ भी नहीं।

हर तरफ मतलबपरस्ती को देख सोचना होता,
महज बात ही बात यहाँ औकात मगर कुछ भी नहीं।

हर जगह चलते-फिरते मुरदे ही नजर आते महज,
आदमी का ढाँचा खड़ा हयात मगर कुछ भी नहीं।

मतलबी रिश्तों के खोखलेपन से दम घुटता ‘बृजेश’,
मुश्किलात मुँह बाये खड़ा सौगात मगर कुछ भी नहीं।


36
न जाने कितने मजबूरों के कराहों का हाथ होता है।
न जाने कितने मजदूरों के आहों हाथ होता है।

बुलंदी के आसमां पे बैठे कईयों की कामयाबी में,
अक्सर अनगिनत गलत राहों का हाथ होता है।

जाने कितनों के गले काटने वालों को आगे बढ़ते देखा,
दौलत के ढेर पे बैठने में खुदगर्ज चाहों का हाथ होता है।

दौलत बटोरने गैरत, ईमान को दाँव लगाते देखा,
यहाँ बिकते जमीरों बेईमानी के छाँहों का हाथ होता है।

जल्द बढ़ने की हवस में नीचे गिरते लोग यहाँ कई-कई,
कामयाबी में अक्सर जाने कितने गुनाहों का हाथ होता है।

दौलत की लत के आगे शर्मो हया का मोल होता नहीं,
दौलत घर भरने में अक्सर बेशर्म निगाहों का हाथ होता है।

‘बृजेश’ किसी दौलतमंद को दौलत यूँ ही मिलती नहीं,
यहाँ जाने कितने मजलूमों के आहों का हाथ होता है।


37
छोड़ा चहचहाना बुलबुलों ने ए मनहूस कैसी वीरानी है।
पत्ता-पत्ता मुरझाया लगता फकत दुख भरी कहानी है।

दहशतगर्दों के रहमोकरम का हर सख्स मोहताज यहाँ,
हालात के शिकार बने, दिखती हारी-थकी जवानी है।

अँखियन में पानी भरी-भरी, केसर क्यारी सूख चली,
लगे धरती का स्वर्ग जहन्नुम सा खूं सस्ता मँहगा पानी है।

चलती मनमर्जी वतनफरोशों की, सल्तनत दहशतगर्दों की,
दरवेश, फकीरों की पूछ नहीं, मौन ऋषि मुनियों की वानी है।

‘बृजेश’ एक ही पुरखों की औलाद हिन्दू मुसलमान दोनों, मगर
कैसे काट रहा भाई, भाई को अपने देख यही हैरानी है।


38

कामना और वासना के सेज पे पल रही है जिन्दगी।
ढलना ही आखिरी अंजाम इसका और ढल रही है जिन्दगी

मुकद्दस मकसद होता नहीं अक्सर आदमी के पास,
‘बृजेश’ चिन्तन नहीं चिन्ता चिता पे जल रही है जिन्दगी

कुछ कर गुजरने की ताकत रही, तब गाफिल सोया रहा इन्सां,
वक्त गुजर जाने के बाद अब हाथ मल रही है जिन्दगी।

खुशियों के चन्द लम्हों के वास्ते तरसता रहता आदमी,
रो धो के चलना हस्र, इसका घिसट के चल रही है जिन्दगी।

चाहतों की फेहरिस्त लम्बी लिए दर ब दर भटकते रहे,
‘बृजेश’ कामनाओं के झुनझुनों पे अब बहल रही है जिन्दगी।

39

अरमान दूसरों का यहाँ मसलते हैं लोग।
मजलूमों की चिता पर रोटियाँ सेंकते हैं लोग।

जमीर और गैरत से दूर का नाता भी नहीं,
आज इन्सानियत का गला रेतते हैं लोग।

खुदगर्जी के आलम में दूसरों की क्या बातें करें,
आज गढ्ढे में अपनों को भी ढकेलते हैं लोग।

जिधर देखो शैतानियत का बोलबाला यहाँ,
इन्सानियत के चेहरे पे तेजाब फेकते हैं लोग।

‘बृजेश’ अमन के रंग मँहगे हो गये अब ,
इसलिए होलियाँ खून की खेलते हैं लोग।


40

बैठे हैं बेबस अपने ही हाथों अपना चमन उजार के।
जी सकते थे बेहतर मगर जिए जैसे-तैसे दिन गुजार के।

‘बृजेश’ दुनिया को सीख देने की फितरत रही हमारी,
मगर बैठे अपने ही मसलों में हम हिम्मत हार के।

न वे समझ सके हमको, न हम उनको समझा सके,
हालात से मजबूर वो भी, बैठे हम भी बैठे थक हार के।

है साथ रहने की जरूरत दोनों को बराबर, मगर
अफसोस साथ निभाया जबरिया मन मार के।

रो धो के शिकवा गिला में दिन रात बस कटते गये,
‘बृजेश’ आया बुलावा चल दिए उपर यूँ हाथ पसार के।

Tuesday, March 8, 2011

निष्कर्ष - गज़ल संग्रह - भाग 2

13

वो महज श्याम के, और सारे पहचान खो गए।
रसखान के मन के पूरे सारे अरमान हो गए।

श्याम रंग भाया रसखान को इस कदर,
वो श्याम के और उनके घनश्याम हो गए।

मुरलीधर की मुरली का ऐसा कुछ असर
उनकी वंशी के तान पे रसखान खो गए।

तराने सूफियों से हैं आज भी कानों में गूंजते,
औलिया रसखान फकत रस के खान हो गए।

बृजेश को भी भाए रसखान इस कदर
रसखान खास दिल के मेहमान हो गए।

‘बृजेश’ ऐसी थी मेरे औलिया रसखान की नजर
निगाहों में बस एक ही राम और रहमान हो गए।

14

गुनहगार गाँठों में अक्सर भरपूर दाम देखा होगा।
गिरते जमीरों पे यहाँ चमत्कृत आवाम देखा होगा।

बुलंद साया हरदम कद्दावर होने का सबूत नहीं होता,
आपने उनके साये को सुबह या शाम देखा होगा।

बुलंद कदों की तंगदिली देखी है हमने अक्सर
असलियत नहीं शायद ऊपरी ताम-झाम देखा होगा।

अवाम के शोषक, पोषक का स्वांग रचाते कई-कई अक्सर,
बेशर्मियों का प्रदर्शन आपने सरेआम देखा होगा।

दौलत के दम पे सुनहरे हर्फ में इश्तहार देने वाले कई,
‘बृजेश’ शायद अखबारों में उनका छपा नाम देखा होगा।

15

किसी को वो बड़े मुश्किल से हमदर्द हमसफर देता है।
कभी कभी ही ऊपरवाला खुशियों की डगर देता है।

ऊपरवाले की बेदरदी से कलेजा फटता है कभी,
जब गम की इंतिहा और आँसुओं का समन्दर देता है।

दो दिलों को मिलाकर एक करता कभी वो,
फिर जानेमन को जुदाकर दरदे जिगर देता है।

खुदा की खुदाई खुद ऊपरवाला ही जाने,
हमसफर देता फिर जुदाई का जहर देता है।

कुदरत की कारस्तानी समझ पाता न कोई,
‘बृजेश’ कभी खुशी तो कभी गम का सफर देता है।

16

हर इन्सान का इम्तिहान लेना कुदरत चाहती है।
आदमी को अक्सर ए रिश्तों के सलीब पे टांगती है।

जिन्दगी हरदम सुखों की सेज होती नहीं,
कई कई बार जीते जी ए इंसा को मारती है।

इम्तिहानों का कभी खत्म न होने वाला सिलसिला,
अक्सर सब्र के पैमाने को जिन्दगी थाहती है।

कभी सख्ती की इंतिहा होती, तभी कहते जिन्दगी,
आदमी को वक्त की कसौटी पे कसना चाहती है।

सस्ते निपटने की कोशिश हिमाकत होती ‘बृजेश’,
जिन्दगी जीने की कीमत आदमी से माँगती है।

17

इन्सान के पीर का पैमाना होता है समन्दर।
तभी तो हरदम इतना खारा रहता है समन्दर।

आदमी जब से आया गम में रोता ही रहता,
इन्सानी अश्कों से नमकीन बन जाता है समन्दर।

इन्सान की जिन्दगी हादसों में पलती रहती,
जाने कितने सुनामी दामन में पालता है समन्दर।

अपनों की रूसवाइयों पर जिन्दगी खप जाती अक्सर,
इसलिए जीवन गम का कहलाता है समन्दर।

आज तक गहराई का थाह न लगा है न लगेगा कभी,
बेशुमार पानी से हरदम उफनता है समन्दर।

आँखों का आँसू न खत्म हुआ है न होगा कभी भी,
तभी धरती का तीन चौथाई विस्तार पाता है समन्दरै।

न खाली हुआ है न कभी खाली होगा ‘बृजेश’,
इन्सानी अश्कों के कारण भरा रहता है समन्दर।

18

सितारे चाँद मंगल आसमां मुट्ठी सब समा गया है।
परचम इन्सां का लहरा जमीं और ऊपर आसमां गया है।

आज मजलूम अवाम की जिन्दगी का भरोसा नहीं,
दहशतगर्दों की वहशत से शैतान तक अब शरमा गया है

सदाकत और वतनपरस्ती से हुक्मरानों का क्या वास्ता,
सुविधाओं की फेहरिश्त की चकाचौंध भरमा गया है।

अब पूछ परख होती नहीं, इंसानियत का भाव मंदा,
फकत दुनिया में हैवानियत का बाजार गरमा गया है।

मजहब के नाम पे कत्लेआम मचता ही रहता जहां में
बालक क्या बुजुर्ग जवां पूरा जहाँ अब थर्रा गया है।

मजहब के नाम पे कत्लेआम मचता ही रहता जहाँ में,
बालक क्या बुजुर्ग जवां पूरा जहाँ अब थर्रा गया है।

मगर आज हकीकत बयां करते अपनी जबां कांपती ‘बृजेश’
इन्सानियत का परचम पाताल के गर्क समा गया है।

19

जहाँ में माँ के आँचल से बढ़ के कोई जन्नत नहीं होता
सर पे माँ के साये से बढ़ के कोई सल्तनत नहीं होता।

देह का रोआँ रोआँ माँ के लहू मज्जे से बना ‘बृजेश’
माँ का एहसान भूलने वाले सा कोई बेगैरत नहीं होता।

माँ की दुआओं की असर से औलादों की किस्मत चमकती,
माँ का दिल दुखाने वालों का कभी बरक्कत नहीं होता।

कहते हैं माँ की कदमबोशी से सारे देवता खुश रहते,
माँ की सेवा करने वाले सा कोई खुशकिस्मत नहीं होता।

लाख बुलंदियों पर पहुँचे कोई करके मेहनत-मशक्कत,
यकीनन माँ की दामन से बढ़के रत्न कुछ बेशकीमत नहीं होता।

‘बृजेश’ खुशकिस्मत है वो जिसके सर पे माँ का साया,
धरती में, जन्नत में माँ की मन्नत से बढ़के कोई मन्नत नहीं होता।

20

जंगे आजादी का तराना वंदे मातरम्।
जांबाज शहीदों का गाना वंदे मातरम्।

अपने लहू से सींचा आजादी की पौध को,
उन वतनपरस्तों का अफसाना वंदे मातरम्।

वतन के वास्ते नहा लिए अपने ही खूँ से,
ताकत सरफरोशों का गाइबाना वंदे मातरम्।

मकसद मादरे वतन की बेड़ियों को काटना,
मुल्क के तवारिख का ताना-बाना वंदे मातरम्।

दिया हौसला मदमस्त फिरंगी को पस्त करने,
‘बृजेश’ गैबी ताकतों का खजाना वंदे मातरम्।

21

वतन हिन्दुस्तान की शान वंदे मातरम्।
हम हिन्दुस्तानियों की जान वंदे मातरम्।

फिरंगियों को लोहे के चने, चबवाया इसने,
हम हिन्दुस्तानियों की पहचान वंदे मातरम्।

कट गये सर मगर जुबां पे ए तराना, हरदम,
हिन्दुस्तानियों की मान-आन वंदे मातरम्।

जांबाजों ने अड़ा दी छाती, संगीनों की धार पे,
वतनपरस्त जवानों की आन बान वंदे मातरम्।

चूमे फांसी का फंदा गीत गा सरफरोशों ने,
‘बृजेश’ ताकते हिन्दुस्तानी अवाम वंदे मातरम्।

22

मादरे वतन से बढ़ के कोई मजहब नहीं होता।
वतनपरस्ती से बढ़ के कोई मकसद नहीं होता।

माना मजहब चुनना, इन्सां की आजादी होती मगर,
मादरे वतन से बढ़ के कोई मुकद्दस नहीं होता।

पहना शहीदों ने बासंती चोला फांसी के फंदे चूम के,
वतन के मुहब्बत से बढ़के कोई मुहब्बत नहीं होता।

बेशुमार दौलत के ढेर पे भले ही बैठा हो कोई,
वतनपरस्ती की, जज्बा से हटके कोई मुकम्मल नहीं होता।

‘बृजेश’ वतन पे जाने कितनी जिन्दगियाँ कुर्बान होतीं,
वतन के मुकद्दर से बढ़के कोई मुकद्दर नहीं होता।

23

दौलतमंदों के पीछे बहुत देखे, हों इल्म के कद्रदां तो कोई बात हो।
सदाकत को बना सकें दिल का अगर मेहमां तो कोई बात हो।

औरों को नसीहतें देने वाले आलिम बहुतेरे दिखते यहाँ
झाँक सकें अगर अपने-अपने गिरेबां तो कोई बात हो।

दुनिया में दौलत ताकत वालों पे सभी मेहरबां दिखते यहाँ,
मेहरबां किसी गरीब मजलूम पे हो मेहरबां तो कोई बात हो।

सारी दुनिया को जगाने की कबायद में नाहक परेशां होते,
अगर जगा सकें अपने भीतर के सोये इंसां, तो कोई बात हो।

अच्छी बात कि बड़े-बवंडर तूफां को भी रोकने का है हौसला,
रोक सकें मगर खुदगर्जी के उफां तो कोई बात हो।

खाते-पीते-सोते यूं ही फना हो जाते इस दुनिया से सभी,
दमदार अगर हो आम से उपर खास हटके दास्तां तो कोई बात हो।

दुखियों फटेहालों के मदद की गुहार बहुत अच्छी बात ‘बृजेश’,
मगर सबसे पहले खोल दें अपने आस्तां तो कोई बात हो।

24

गुनाहों की  भारी गठरी बना कोई ढो गया।
कर्त्तव्य को सिराहने दबा कोई सो गया।

ए अपना-अपना होता है ढंग सबका,
यहाँ कोई हँस के गया तो कोई रो गया।

गाफिल वो जो होश खो बैठता यहाँ,
दुनिया के झमेले में कोई खो गया।

अपनों का काम दुश्वारियों से उबारना,
अपनों की जिन्दगी में काँटे कोई बो गया।

कोई मुँह पे कालिख पोत चला यहाँ से,
तो कलंक अपनों का भी कोई धो गया।

वक्त पे चेता नहीं चलाचली की बेला में अब,
पछताना क्या जो हो गया सो हो गया।

अंदाज अलग है सबके जीने का अपना,
‘बृजेश’ कोई जागता, घोड़े बेच कोई सो गया।

25

वक्त सीने को हमारे पल-पल चाक करता जा रहा।
अपने एक एक कर साथियों का साथ छूटता जा रहा।

ज्यों ज्यों उम्र बढ़ती जा रही अपनी ‘बृजेश’
दिन ब दिन दर्द का कारवां भी बढ़ता जा रहा।

अन्दर ही अन्दर दिल अपना टूटता जा रहा।
लावा गम का दिन ब दिन फूटता जा रहा।

न देना कोई उम्रदराज जीने की दुआ हमको,
जिन्दगी का एक-एक पल भारी पड़ता जा रहा।

अपनों के जनाजे ढोते-ढोते कंधे छिल गये ‘बृजेश’
जुदाई की बेइंतिहाई गम से कलेजा फटता जा रहा।

Friday, March 4, 2011

निष्कर्ष - गज़ल संग्रह - भाग 1

1

अपनी संस्कृति पर ए चोट अनायास देते हैं,
मानसिक दिवालियापन मन को आघात देते हैं।

वे बेगैरत होते हैं जो कौमी एकता के नाम पे,
भुला निज पुरखों का बलिदानी इतिहास देते हैं।

देख के आततायियों का महिमामंडन बारबार,
हमको अतीत के टीस भयानक त्रास देते हैं।

बेशर्म आँखों का पानी मर चुका, जाने कब का,
बेगैरतमंदी का आलम यही आभास देते हैं।

अपने जांबाज पुरुखों का बलिदान भूल गये हैं वो
बर्बरों का गुणगान मन की गुलामी का अहसास देते हैं।

बुरी लत लग गई हिन्दुस्तानियों को जाने कब से,
अपनों को भूल गैरों को अहमियत खास देते हैं।

प्रताप, शिवा गोविन्द दाहिर ने सींचा आजादी की पौध को,
ये मगर अकबर आलमगीर कासिम को प्रतिसाद देते हैं।

उन्हें पृथ्वी, संग्राम का बलिदान याद नहीं ‘बृजेश,
फकत गोरी बाबरों का गुणगान मन को उल्लास देते हैं।

2

उजाड़ कर रख दी शांति सौहार्द्र के उपवनों को,
बढ़ा कर रख दी इनने अवाम के उलझनों को।

एका का ठेका लिए मजहब के ठेकेदार कई दिखते यहाँ
अमन की बात करते देखा फकत अमन के दुश्मनों को।

भाई चारे औ अहिंसा का स्वांग रचाए फिरते कई-कई,
शान्ति का मसीहा बनते देखा खून से सने दामनों को।

रहनुमाई कर रहे हैं जो टूटे दिलों को जोड़ने के वास्ते,
अफसोस है आज वही बाँट दिए घर आँगनों को।

आज एकता की बातें करते थकते नहीं जो यहाँ,
हमने देखा वो ही बाँट रहे हैं लोगों के मनों को।

वतन की खुशहाली का ख्वाब देखते देखते ‘बृजेश’
मुल्क की जमा पूँजी की कुंजी थमा दी रहजनों को।

3

इल्म के नाम दहशतगर्दी की तालीमों को देखा है हमने।
रक्त सने ओठ-गालों की लालिमों को देखा है हमने।

दागदार सियासतदारों के चौखट पे आज,
हाजिरी बजाते कई आलिमों को देखा है हमने।

सफेदपोशों की चमकती पोशाकों पे न जाना कभी,
इनके बाह्य-अन्तस की कालिमों को देखा है हमने।

काबिलियत, मेहनत धरी की धरी रह जाती यहाँ,
सम्मान, पदक पाते तमाशबीनों को देखा है हमने।

दौलत की बदौलत इज्जत पाते कई गुनाहगार,
फकत जहीन कहाते कमीनों को देखा है हमने।

आज सियासत दौलत की ताकत पर ‘बृजेश’
इज्जत पाते दरिन्दों जालिमों को देखा है हमने।

4

आधा अधूरा है जो अबतक अभिव्यक्त है,
जो व्यक्त है संपूर्ण नहीं मात्र वो अतिरिक्त है।

मौन मुखरित होने को आतुर दिख रहा,
अभिव्यक्त हो कैसे भला! शब्द सागर रिक्त है।

अन्तर्भाव से नख शिख पुलकित हो उठा,
 हृदय सरस सुधारस से अभिषिक्त है।

मेरे अन्तस में बैठा, अपरिभाषित है अब तक,
मुकम्मल नहीं है ये, जो अब तक हुआ व्यक्त है।

जिसकी तलाश रही मुद्दतों से ‘बृजेश’,
जीवन का फलसफा अब तक अव्यक्त है।

5

चंचल होता मन वो तन पर अपना ही थोपता है,
अंततः आदमी को जरा रोग धर दबोचता है।

जिन्दगी खोखली होती वासना के दीमकों से,
कौन कहता है वो यहाँ भोगों को भोगता है?

आदमी के वासना की आग बुझती नहीं कभी,
मृग मरीचिका है जो महज भोगों में सुख खोजता है।

तृष्णा के ज्वाले को बुझाने कम पड़ता समन्दर का पानी,
नादान है जो भोग को भोगने की सोचता है।

कामनाओं की प्यास अधूरी ही रह जाती ‘बृजेश’,
आदमी भोग को नहीं, आदमी को भोग भोगता है।

6

कामयाबी बुलंदी की कीमत न चुकाना चाहते हैं लोग,
यूँ ही सफलता शिखर पर पहुँच जाना चाहते हैं लोग।

मुफ्त जहर तक मिलता नहीं इस जहां में ‘बृजेश’,
आज यहाँ यूँ ही आबेहयात पाना चाहते हैं लोग।

दूसरों से कुर्बानियों की उम्मीद लगाए बैठे मगर,
अपना न थोड़ा भी पसीना बहाना चाहते हैं लोग।

जले भुने बैठे दूसरों की कामयाबी पे अक्सर,
ईर्ष्या के बारूद पर बैठ मुस्कुराना चाहते हैं लोग।

जमीर का शिकस्त ही मुकद्दर होता अक्सर,
मगर जीत का गीत गुनगुनाना चाहते हैं लोग।

फर्ज से दूर तक का रिश्ता दिखता नहीं ‘बृजेश’,
सिर्फ कामयाबी को गले लगाना चाहते हैं लोग।

7
हकीकत यही मायूसियों की दहलीज है वो।
लोग भले ही कहते अपना हबीब है वो।

महज कहने भर को ही है अपना,
मगर नहीं अपने करीब है वो।

दुश्वारियों से उबरने देता नहीं
शै बड़ा अजीबोगरीब है वो।

खैरख्वाह बनता दामन भी जलाता
जाने कैसा मेरा रकीब है वो।

अपना होके भी अपना न हो सका,
कोई गैर नहीं मेरा नसीब है वो।

कहते हैं जिसके साथ नसीब नहीं होता,
‘बृजेश’ बहुत बड़ा बदनसीब है वो।

8

सर का ताज बनाये बैठे हैं वे अपनी बेदिली को।
हमने सर माथे रखा नायाब अपनी पसंदगी को।


पाक मुहब्बत को अपने सजदा किया था हमने,
मगर शर्मिन्दगी समझ बैठे वो मेरी बन्दगी को।

खेल के सामान से अलहदा न समझे मेरे दिल को,
फकत अदना खिलौना ही समझे मेरी जिन्दगी को।

कैसे बेबस लाचार हम, न कर सके इजहार हम,
अपनी पसंदगी को, अपनी नापसंदगी को।

जुल्मो सितम उनका मगर खुद को दोषी बताते रहे,
हैं खुद हैरान हम देख अपनी इस दीवानगी को।

अपनी बेगुनाही पे तरस खाई न हमने ‘बृजेश’
खुद ही थे मुंसिफ और सजा सुना दी खुदी को।

9

व्यक्ति के व्यक्तित्व का अंदाजा होता उसकी तहजीब से,
जीवन की फसल उपजती है संकल्पों के बीज से।

जो जैसा सोचता वैसा ही वो बन जाता अक्सर,
शुभ या अशुभ कर्म निकलते हैं विचारों के दहलीज से।

किसी समय का कर्म भाग्य में तबदील होता सब जानते,
नाहक गिला शिकवा होता आदमी को अपने नसीब से।

आदमी नजरअंदाज भले कर देता इसे अक्सर मगर,
जमीर सवाल करता है हरदम अमीर से गरीब से।

दुनिया को सुधारने की कवायद में लगा रहता ‘बृजेश’
न देखना चाहता है आदमी खुद को करीब से।

10

या तो जमीर को पतन के गर्क तक गिराना होता है।
या जमीर को बुलंद आसमान तक उठाना होता है।

कोई बड़ा आदमी यहाँ यूँ ही बन जाता नहीं ‘बृजेश’
सब को शोहरत व बुलंदी का मूल्य चुकाना होता है।

सच्चाई के राह पे चलके ऊपर उठना बहुत मुश्किल,
सत्य की बलिवेदी पर स्वयं को चढ़ाना होता है।

आत्मा की आवाज सुनना सब के बस की बात नहीं
जमीर के लिए अपना सर्वस्व लुटाना होता है।

खुद्दारी के राह पर चलना हँसी खेल नहीं होता,
‘बृजेश’ सुख सुविधा सब को दाँव पर लगाना होता है।

11

वजूद को तलाशते हम दर-बदर भटकते हैं,
कब चढ़ेगी परवान अपनी तलाश, हम सोचते हैं।

अंतहीन इस खोज का जाने क्या अंजाम हो,
लाख कोशिश हो मगर मसले न सुलझते हैं।

कुछ खाली-खाली सा अंदर लग रहा, अब
फकत आज अपने सब्र के सत्त्व रिसते हैं।

इंतिहा हो गयी अब इस अंतहीन खोज की,
अपने भीतर की उलझनों से अक्सर उलझते हैं।

ऐसा मिले कोई सच का आइना दिखा दे ‘बृजेश’
सच्चे रहबर की दीदार को हम तरसते हैं।

12

मेरी चाहतों को मेरी मजबूरियाँ समझ बैठे हैं वो,
किसी के शराफत को कमजोरियाँ समझ बैठे हैं वो।

गलबहियाँ औरों से और अपनों से कटते रहे,
अपनी कमियों को अपनी मजबूतियाँ समझ बैठे हैं वो।

कौन अपना कौन पराया समझ आई न अब तक
अपनी नासमझी को अपनी होशियारियाँ समझ बैठे हैं वो।

उनकी सलामती के खातिर दुनिया से लड़ते रहा हरदम
मेरे इस संघर्ष को मेरी दुश्वारियाँ समझ बैठे हैं वो।

न रही एहसान जताने की फितरत हमारी ‘बृजेश’
मेरी इस आदत को दिल की दूरियाँ समझ बैठे हैं वो।

नि‍ष्‍कर्ष ......गजल संग्रह .........भूमि‍का

 

डॉ.बृजेश सि‍ह का गद्य व पद्य दोनों वि‍धाओं पर समान अधि‍कार है, उनके अब तक 10 ग्रंथों का प्रकाशन हो चुका है। अध्‍यात्‍म दर्शन और राष्‍ट्रीयता आपका प्रमुख वि‍षय है। 2000 मुक्‍तक एवं 1100 गजलें लि‍खकरआपने इस क्षेत्र में ख्‍याति‍ अर्जित की है। अभी हाल ही में आपने 3000 शेर की प्रलंब गजल 'समाधान' लि‍खी है ‍जि‍से हि‍न्‍दी की सबसे बडी गजल कहा जा सकता है। गजलों के क्षेत्र में 'नि‍ष्‍कर्ष' इनका प्रकाशि‍त पहला गजल संग्रह है......इस संग्रह में शामि‍ल गजलें अब इस ब्‍लॉग में आपके लि‍ये प्रस्‍तुत हैं.......
भूमिका..................................                                     अरबी भाषा के कसीदों से उद्भुत, फारसी की हुश्न और इश्क की गजल उर्दू में नाजुक ख्याली खूबसुरत अंदाजेबयाँ की मिसाल बनकर प्रकट हुई हुयी। इस तरह इसमें कल्पना और शिल्प के उत्कर्ष का स्पर्श मिला। गजल के एक-एक ‘शेर’ दोहे छंद-सदृश अपने-आप में पूर्ण भी हैं और ‘सतसैया के दोहरे’ -सदृश निबद्ध भी हैं। समासोक्ति इसकी विशेषता है जो गजल और दोहा को समान भूमि प्रदान करती है। इसके बाद भी गजल शिल्पगत वैशिष्ट्य के आधार पर पृथक पहचान प्रदर्शित करता है।उर्दू की गजल के समानांतर हिंदी में भी अमीर खुसरो से इसकी शुरूआत तेरहवीं शताब्दी से मिलती है। इस तरह उर्दू के दरबार से निकलकर हिंदी गजल जनमानस के मध्य आ जाती है। मीर और निराला से छनकर दुष्यंत में आकर हिंदी की गजल नये कलेवर व तेवर के साथ प्रस्तुत क्या होती है, वह आधुनिक भाव-बोध को गुनगुनाना शुरू कर देती है। वस्तुतः बीसवीं सदी का छठवाँ दशक साहित्येतिहास का वह क्षण था जब नयी कविता बुद्धिवाद की अतिशयता से उबकर और गीत संगीत से रच-बस कर और आधुनिक भाव-बोध की अभिव्यक्ति-क्षमता से दुर्बल होकर दम तोड़ने लगा था। ऐसे समय में एक ओर नवगीत, गीत के आधुनिक विकास क्रम के रूप में जहाँ नव्य स्वरूप में प्रकट हुआ, वहीं आधुनिक विद्रूपता और विसंगति को अभिव्यक्त करने के लिए शैली को छोड़कर व्यंग्य, विधा के वृत्त को विनिर्मित करने की व्यवस्था में कारगर सिद्ध हुआ। गजल-विधा पर इन दोनों प्रवृत्तियों का प्रभाव परिलक्षित हुआ परिणामतः यदि एक ओर उसमें नवगीत की तरह आधुनिक भाव-बोध को अधिकृत करने का कौशल अभिव्यंजित हुआ तो दूसरी ओर व्यंग्य की विद्रूप-विपरीत विरोधाभासी वृत्तियाँ भी उजागर हुई। दुष्यंत कुमार के गजलों की यह विशेषता युग-प्रवाह के अनुकूल सहज प्रयोग के रूप में प्रतिष्ठित होकर समकालीनता से संपृक्त हो गयी। वह फकत दिल की नहीं, दिमाग की भी दवा हो गयी, वह केवल शराब की मौज-मस्ती नहीं, रिसते हुए जख्मों की मलहम हो गयी। वह सिर्फ घुंघरू की खनक नहीं, नगाड़े की धमक भी सिद्ध हो गयी। वह मात्र प्रेमालाप नहीं, दुख-दर्दों का माप भी बन गयी। वह क्रमशः लज्जा की पर्त हटाने का आचरण नहीं, दीन-दुखियों के फटेहाल जिंदगियों पर कपड़ा ढँकने का व्याकरण बन गयी। वह तन से गुजरती हुयी मन और अंतर्मन के अंतराल तक पहुँचने का कारण बन गयी। इस तरह फटे हृदय को सी कर और शिवजी की तरह जहर को पीकर गजल मानवता की पुनर्प्रतिष्ठा का माध्यम बन गयी। निराला, शमशेर बहादुर सिंह और त्रिलोचन से निर्दिष्ट हिंदी गजल की विरासत को विकसित करने, युगीन संदर्भों के अनुकूल उसे समकालीनता से जाँचने और आधुनिकता से आँकने वाले दुष्यंत कुमार ने उसे न केवल लोकप्रिय बनाया अपितु युग की मांग के अनुरूप उसे सुदृढ़-सुपुष्ट भी किया। इस तरह दुष्यंत कुमार हिंदी गजल के प्रतिमान प्रमाणित हुए। इस परंपरा को प्रोन्नत करने वालों में चंद्रसेन विराट, कुंवर बेचैन, शेरजंग गर्ग, रोहिताश्व आस्थाना, पुरुषोत्तम प्रतीक, गिरिराज शरण अग्रवाल, मणिक वर्मा, डॉ. हनुमंत नायडू, मुकीम भारती, बंदे अली फातमी, मुस्तफा हुसैन, डॉ. राज मल्कापुरी, डॉ. इंद्रबहादुर सिंह, डॉ. बलदेव भारती, हरिकृष्ण प्रेमी, गिरीश पंकज, लक्ष्मीनारायण साधक, डॉ. बृजेश सिंह प्रभृति अनेक नाम उल्लेखनीय हैं।
‘मेरी गजल’ डॉ. बृजेश सिंह की प्रतिनिधि गजलों का संग्रह है जिसमें से कुछ तो समय-समय पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होकर प्रशंसा पा चुकी हैं जबकि कुछ अप्रकाशित व ताजी रचनाएँ हैं। इनमें जीवन के विविध रंग-रूप भी हैं और समकालीनता के संदर्भ भी। कवि डॉ. सिंह राष्ट्रवादी रचनाकार हैं इसीलिए उन्हें इस बात का दर्द हमें सालते रहता है कि हम अपनों को नकारते और गैरों को अपनाते हुए गुलामी मानसिकता से ही ग्रस्त नजर आते हैं-
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जीवन साधना का सोपान है। यह सस्ते का सौदा कदापि नहीं है इसलिए इसे संवारने और सहेजने के लिए कबीर की तरह ‘ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया’ का आश्रय-ग्रहण करना पड़ता है। यह मार्ग कदापि सरल नहीं। उसे चुकाने के लिए त्यागमयी आचरण का अवलम्ब अपरिहार्य है-
विडंबना तो यही है कि स्वतः से अपरिचित व्यक्ति आज समाज सुधारक बना बैठा है।
अस्मिता का अन्वेषण अनवरत् अध्ययन अनुशीलन और अनुभवों के आलोड़न के बाद ही कहीं मिलता है लेकिन साधना के सोपान पर चढ़े और आगे बढ़े बिना लोग उसके तुल्य का सपना संजोने लगते हैं-
आज व्यक्ति का आकलन प्रदर्शन के प्रश्रय से होता है इसीलिए सीधे-साधे व सच्चे मनुज को लोग दुर्बल समझ लेते हैं-
रसखान की तरह राम और रहमान को समान दृष्टि से निरखने-परखने वाली मौलिक सृष्टि अब कहाँ देखने को मिलती है-
जीवन अश्रु के खारेपन का सागर ही तो है जो सूखता कभी नहीं वरन् निरंतर वृद्धि का वितान बनाता है-
मनु से लेकर आज के मनुज ने माँ को शब्दों में मापने और अनुभवों में झाँकने का प्रयास किया। बतौर डॉ. बृजेश ‘माँ’ के आँचल से बढ़कर संसार में कोई स्वर्ग नहीं सिकजा है और उसके आर्शीवाद से बढ़कर कोई साम्राज्य नहीं उभरा है-
इतना ही नहीं, जन्मभूमि (भारत माँ) से बढ़कर कोई धर्म और देश-भक्ति से बढ़कर कोई उद्देश्य नहीं है-
‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ तो अनेक हैं लेकिन आत्मा की आवाज पर आत्मोत्थान करने वाले अलभ्य हैं-
ये संसार भी अजीब है। यहाँ निर्मम न्याय का नियमन होते रहता है। जिस सिकंदर को जीवन-पर्यंत ताकत का गुमान था, उसे ही अंत में अपने पराजित-व्यक्तित्व से आत्म-साक्षात्कार करना पड़ा। इसी तरह हिटलर जैसे उच्च महत्त्वाकांक्षी व्यक्तित्व को दो गज जमीन भी नसीब नहीं हुई-
झूठ फरेब का साम्राज्य इतना विस्तृत है कि सच्चे आदमी को ठौर-ठिकाना नहीं मिलता-
यह मानव भी बड़ा विचित्र है। यह जानते हुए भी कि कर्म के अनुरूप फल की प्राप्ति होती है, वह तिकड़म करने से बाज नहीं आता-
दरबार लगाने वाले औरंगजेब को क्या मालूम था कि मौत के समय वह अकेला और असहाय हो जाएगा। इस तथ्य को केंद्रस्थ करके गजलकार निर्दिष्ट करते हैं कि अंतिम यात्रा तो अकेले ही तय करनी होती है-
सांप्रदायिक उन्माद के चलते हमारा देश सिमटता जा रहा है और हम हैं कि इसे ही बराबर हवा दिए जा रहे हैं-
त्वरित फल-प्राप्ति की प्रत्याशा में फिसलते और गुनाहों में कदम रखते लोगों को कवि ने देखा है-
आज ऐसे निर्लज्ज लोगों की अल्पता नहीं है जो दूसरों की चिता पर अपनी रोटी सेंकने और दूसरी की इच्छाओं को कुचलने से बाज नहीं आते-
यह विडम्बना ही तो है कि मनुज अपनी बनाई मर्यादा की सीमा का स्वतः अतिक्रमण कर बैठता है इसलिए अपने स्वभाव के समक्ष वह स्वयं पराजित हो जाता है-
मानवता के उदात्त को स्पर्श करने वाला देवता-स्वरूप कभी पथभ्रष्ट और कभी पाशविक जीवन व्यतीत करने वाला देव-स्वरूप प्रतीत होता है-
डॉ. बृजेश सिंह के प्रस्तुत संग्रह में जीवन दर्शन सरल-सहज भाषा में प्रस्तुत होकर अभिव्यंजित है। यह संग्रह निश्चित ही हिंदी गजल को नई मंजिल देगा। शुभकामनाओं सहित-

(डॉ. विनय कुमार पाठक)
एम. ए., पी-एच.डी., डी. लिट्, (हिंदी)
पी-एच.डी., डी. लिट्, भाषाविज्ञान
निदेशक-प्रयास प्रकाशन,
सी-62, अज्ञेय नगर, बिलासपुर (छ.ग.) ,



Tuesday, March 1, 2011

सरस्‍वती शतकम् भाग 4

सरस्‍वती-शतकम्
संस्‍कृत गीति‍काव्‍य
श्‍लोक 76 से100
जीवाधारयोगिनीममितपराक्रमदायिनीम्।
ब्रह्मज्योति:प्रदीप्तिनीं नमामि वीणावादिनीम्।।७६।।
अन्वय -जीव.आधार योगिनीम्, अमित पराक्रम दायिनीम्, ब्रह्म ज्योतिर: प्रदीप्तिनीं, वीणावादिनीं नमामि।
अर्थ - जीव.आधार योगिनी, अमित पराक्रम देने वाली, ब्रह्म ज्योति प्रदीप्त करने वाली, वीणावादिनी महादेवी सरस्वती को मैं नमस्कार करता हूँ।

अनुकूलफलदायिनीं कीर्ति-यश:प्रदायिनीम्।
वाचा श्वेताम्बरां नमामि श्री सुशोभिताम्।।७७।।
अन्वय - वाचा श्वतोम्बरां सुशोभिताम् अनुकूल फलदायिनीं कीर्ति.यश: प्रदायिनीम् नमामि।
अर्थ - अनुकूल फल प्रदान करने वाली, कीर्ति यश को देने वाली, वाचा श्वेताम्बरा श्री से सुशोभित महादेवी सरस्वती को मैं नमस्कार करता हूँ।

नित्यानन्दप्रवाहिनीं परमपथप्रदर्शिनीम्।
सरस्वतीं परमात्मनीं नमामि प्रेरणादायिनीम्।।७८।।
अन्वय - सरस्वतीं परमात्मनीं प्रेरणादायिनीम् परम पथ प्रदर्शिनीम् नित्य आनन्द प्रवाहिनीं नमामि।
अर्थ - परमात्मनी, प्रेरणादायिनी, परम-पथ-प्रदर्शिनी, नित्य आनन्द प्रवाहिका, सत्य पक्ष प्रेरणादायिनी महादेवी सरस्वती को मैं नमस्कार करता हूँ।

तत्त्वबोधविवेचितामोंकारतत्त्वनिरूपिणीम्।
कालिदासवन्दितां नमामि वाग्दायिनीम्।।७९।।
अन्वय - तत्त्व बोध विवेचिताम् ओंकार तत्त्व निरूपिणीम् कालिदास वन्दितां वाग्दायिनीम् नमामि।
अर्थ - तत्त्व-बोध-विवेचिता, ओंकार तत्त्व का निरूपण करने वाली,  कालिदास द्वारा वन्दिता, वाग्दायिनी महादेवी सरस्वती को मैं नमस्कार करता हूँ।

तप:कलां भागेश्वरीं सिद्धबलामृद्धीश्वरीम्।
जगन्मातरं सरस्वतीं नमामि पथप्रदर्शिनीम्।।८०।।
अन्वय - जगत् मातरं सरस्वतीं पथ प्रदर्शिनीम् सिद्धबलाम् ऋद्धि‍ ईश्वरीं, भागेश्वरीं तप:कलां नमामि।
अर्थ - जगत-माता सरस्वती, पथप्रदर्शिनी, सिद्धबला ऋद्धि‍ ईश्वरी, भावेश्वरी, तप.कला स्वरूपिणी हैं। पथप्रदर्शिनी महादेवी सरस्वती को मैं नमस्कार करता हूँ।

श्रीब्रह्मानन्दमयीं परात्परां ज्योतिर्मयीम्।
ब्रह्माण्डमहिमामण्डितां नमामि विश्वविमोहिनीम्।।८१।।
अन्वय - श्री ब्रह्मानन्दमयीं, परा-अपरा, ज्योतिर्मयीम् ब्रह्माण्ड.महिमा.मण्डितां नमामि विश्वविमोहिनीम्।
अर्थ - सरस्वती श्री ब्रह्मानन्दमयी, परा अपरा शक्ति से परिपूरित, ज्योतिर्मयी, ब्रह्माण्ड-महिमा-मण्डिता हैं। विश्व-विमोहिनी महादेवी सरस्वती को मैं नमस्कार करता हूँ।

विवादोन्मादहारिणीं विषय-वासना-विनाशिनीम्।
महाकण्टकनिवारिणीं नमामि लोकतारिणीम्।।८२।।
अन्वय - विवाद-उन्माद हारिणीं, विषय-वासना-विनाशिनीम्, महा कण्टक निवारिणीं, लोकतारिणीम् नमामि।
अर्थ - विवाद-उन्माद हारिणी, विषय-वासना-विनाशिनी, महाकण्टक निवारिणी, लोक-तारिणी महादेवी सरस्वती को मैं नमस्कार करता हूँ।

योगपक्षनिरूपिणीं भोगपक्षविच्छेदिनीम्।
भुक्तिमुक्तिदायिनीं नमामि मोहनिवारिणीम्।।८३।।
अन्वय - मोहनिवारिणीं, भोगपक्ष-विच्छेदिनीम् योगपक्ष.निरूपिणीं भुक्ति-मुक्तिदायिनीं नमामि।
अर्थ - भोगपक्ष-विच्छेदिनी, योगपक्ष-निरूपिणी, भुक्ति-मुक्तिदायिनी मोहनिवारिणी महादेवी सरस्वती को मैं नमस्कार करता हूँ।

परमानन्दस्वरूपिणीमात्मबलप्रवाहिनीम्।
दिव्यपद्मासनस्थितां नमामि कमललोचनाम्।।८४।।
अन्वय - परमानन्द स्वरूपिणीम्, आत्मबलम् प्रवाहिनीम्, दिव्य पद्मासन स्थितां, कमललोचनाम् नमामि।
अर्थ - परमानन्द स्वरूप वाली, आत्मबलम् प्रवाह करने वाली, दिव्य पद्मासन पर संस्थित, कमलवत् नेत्रों वाली कमललोचिना महादेवी सरस्वती को मैं नमस्कार करता हूँ।

आत्मबोधनिरूपिणीं चिदानन्दस्वरूपिणीम्।
महादेवीं सुपावनीं नमामि दोषमोचिनीम्।।८५।।
अन्वय - महादेवीं, सुपावनीं, आत्मबोध-निरूपिणीं, चिदानन्द स्वरूपिणीम्, दोषमोचिनीम् नमामि।
अर्थ - सुपावनी, आत्मबोध-निरूपिणी, चिदानन्द स्वरूपिणी, दोषमोचिनी महादेवी सरस्वती को मैं नमस्कार करता हूँ।

निश्छलमनोभाविनीं वैराग्य-भाव-सम्बद्र्धिनीम्।
विरंचिवामांगसंस्थितां नमामि मोक्षदायिनीम्।।८६।।
अन्वय - निश्छल-मन- भाविनीं, वैराग्य-भाव-सम्बद्र्धिनीम् विरंचि-वामांग-संस्थितां मोक्षदायिनीम् नमामि।
अर्थ - निश्छल मनभाविनी, वैराग्य-भाव-सम्बद्र्धिनी, विरंचि ;ब्रह्मा के वामांग ;बाये भाग में संस्थित ;बैठी हुई मोक्षदायिनी महादेवी सरस्वती को मैं नमस्कार करता हूँ।

आलस्यप्रमादहारिणीं सकलदुर्मतिनाशिनीम्।
भगवतीं ह्रींज्ञानवतीं नमामि दुर्बुद्धिनाशिनीम्।।८७।।
अन्वय - भगवतीं ह्रींज्ञानवतीं, आलस्य-प्रमाद हारिणीं, सकलदुर्मतिनाशिनीम् दुर्बुद्धि-नाशिनीम्।
अर्थ - भगवतीं ह्रीं, ज्ञानवती, आलस्य-प्रमाद हारिणी, सकल दुर्मति.नाशिनी, दुर्बुद्धि का नाश करने वाली दुर्बुद्धिनाशिनी महादेवी सरस्वती को मैं नमस्कार करता हूँ।

महापातकविनाशिनीं कुबुद्धिदैत्यमर्दिनीम्।
ब्रह्माणीं सत्यवतीं नमामि बुद्धिदायिनीम्।।८८।।
अन्वय - ब्रह्माणीं सत्यवतीं, महापातक-विनाशिनीं, कुबुद्धि-दैत्य-मर्दिनीम् बुद्धिदायिनीम् नमामि।
अर्थ - ब्रह्माणी, सत्यवती, महापातक नाश करने वाली, कुबुद्धि-दैत्य का मर्दन करने वाली, बुद्धि देने वाली बुद्धिदायिनी महादेवी सरस्वती को मैं नमस्कार करता हूँ।

सरस्वतीं सुवास्वतीं महापापविनाशिनीम्।
तम: समूलछेदिनीं नमामि श्रीसुलोचनाम्।।८९।।
अन्वय - सरस्वतीं, सुवासरस्वतीं, महापाप-विनाशिनीम्, तम: समूल छेदिनीं श्री सुलोचनाम् नमामि।
अर्थ - सरस्वती, सुवास्वती, महापाप का विनाश करने वाली, तम का समूल नाश करने वाली हैं। श्रीसुलोचना महादेवी सरस्वती को मैं नमस्कार करता हूँ।

भगवतीं सिद्धेश्वरीं योगबलां योगेश्वरीम्।
अन्तज्र्योतिप्रदीप्तिनीं नमामि योगरूपिणीम्।।९०।।
अन्वय - भगवतीं, सिद्धेश्वरीं, योगबलां, योगेश्वरीम्, अन्त: ज्योति प्रदीप्तिनीं, योगरूपिणीम् नमामि।
अर्थ - भगवती, सिद्धेश्वरी, योग की शक्ति, योगेश्वरी, अन्त: ज्योति प्रदीप्त करने वाली हैं। योगरूपिणी महादेवी सरस्वती को मैं नमस्कार करता हूँ।

सरस्वतीं ब्रह्ममयीं भेदागम्यां सत्त्वमयीम्।
वेदरहस्यानावृतां नमामि मन्त्रधारिणीम्।।९१।।
अन्वय - सरस्वतीं, ब्रह्ममयीं, भेद अगम्यां, सत्त्वमयीम्, वेद-रहस्य-अनावृतां, मन्त्रधारिणीम् नमामि।
अर्थ - सरस्वती, ब्रह्ममयी, भेद अगम्या, सत्त्वमयी, वेद के रहस्य को अनावृत्त करने वाली हैं। मन्त्रधारिणी महादेवी सरस्वती को मैं नमस्कार करता हूँ।

महाविज्ञानरूपिणीं मनोभावप्रदीप्तिनीम्।
प्रज्ञां देहि विद्यावति! नमामि छन्दोरूपिणीम्।।९२।।
अन्वय - महाविज्ञान-रूपिणीं, मन: भाव प्रदीप्तिनीम्, प्रज्ञां देहि विद्यावति! छन्दोरूपिणीम् नमामि।
अर्थ . महाविज्ञान-रूपिणी, मन के भाव को प्रदीप्त करने वाली, विद्यावती सरस्वती प्रज्ञा प्रदान करने वाली हैं। छन्दरूपिणी महादेवी सरस्वती को मैं नमस्कार करता हूँ।

दुधर्षावसादछेदिनीं चिन्मयस्वरूपिणीम्।
सत्यप्रकाशप्रदर्शिनीं नमामि काव्यरूपिणीम्।।९३।।
अन्वय - दुधर्ष अवसाद-छेदिनीं, चिन्मय-स्वरूपिणीं, सत्य प्रकाश.प्रदर्शिनीं, काव्यरूपिणीं नमामि।
अर्थ .-दुधर्ष अवसाद दूर करने वाली, चिन्मय स्वरूपिणी, सत्य-प्रकाश प्रदर्शिनी, काव्यरूपिणी महादेवी सरस्वती को मैं नमस्कार करता हूँ।

तेजोवलयमुखारविन्दे! नमस्तुभ्यं चरणारविन्दे!।
अन्तरुल्लासकारिणीं नमामि सत्यरूपिणीम्।।९४।।
अन्वय - तेज:वलय-मुख-अरविन्दे! चरण-अरविन्दे!ए नम: तुभ्यं। अन्त: उल्लास कारिणीं, सत्यरूपिणीं नमामि।
अर्थ - तेज वलय से सुशोभित कमलवत् मुख वाली, अरविन्द सी कोमल चरण वाली ;सरस्वती आपको नमस्कार है। अन्त:करण में उल्लास उत्पन्न करने वाली, सत्यरूपिणी महादेवी सरस्वती को मैं नमस्कार करता हूँ।

कुटुम्बकल्याणकारिणीं शारदां भक्तवत्सलाम्।
महासुखसरसायिनीं नमामि मोक्षदायिनीम्।।९५।।
अन्वय - भक्तवत्सलाम्, शारदां, कुटुम्ब कल्याणकारिणीं, महासुख-सरसायिनीं, मोक्षदायिनीम् नमामि।
अर्थ - शारदा भक्तवत्सला, कुटुम्ब का कल्याण करने वाली, महासुख सरसाने वाली व मोक्ष प्रदान करने वाली हैं। मोक्षदायिनी महादेवी सरस्वती को मैं नमस्कार करता हूँ।

सर्वविक्षोभमोचिनीं जगत्संतापहारिणीम्।
चित्त-भ्रम-निवारिणीं नमामि त्रितापतारिणीम्।।९६।।
अन्वय - सर्व-विक्षोभ-मोचिनीं, जगत्.-संताप-हारिणीम्, चित्त-भ्रम-निवारिणीं, त्रिताप-तारिणीम् नमामि।
अर्थ - सभी प्रकार के विक्षोभ ;दुख से छुटकारा देने वाली, जगत के संताप ;कष्ट को हरने वाली, चित्त के भ्रम का निवारण करने वाली त्रिताप ;दैहिक, दैविक, भौतिक से तारने वाली त्रितापहारिणी महादेवी सरस्वती को मैं नमस्कार करता हूँ।

जगन्मातृसुशोभिनीं स्वर्ग-सुखदायिनीम्।
अज्ञानासुरप्रभञ्जिनीं नमामि कालविमुक्तिनीम्।।९७।।
अन्वय - जगत् मातृ सुशोभिनीं, स्वर्ग-सुखदायिनीम्, अज्ञान-असुर-प्रभञ्जिनीं, कालविमुक्तिनीम् नमामि।
अर्थ - जगतजननी के रूप में सुशोभित, स्वर्ग-सुखदायिनी, अज्ञान रूपी असुर को मारने वाली, काल से मुक्ति देने वाली कालविमुक्तिनी महादेवी सरस्वती को मैं नमस्कार करता हूँ।

सत्संकल्पदायिनीं योगक्षेमसम्बद्र्धिनीम्।
ब्रह्मतत्त्वप्रदर्शितां नमामि ब्रह्मरूपिणीम्।।९८।।
अन्वय - सत् संकल्पदायिनीं, योगक्षेम-सम्बद्र्धिनीम्, ब्रह्मतत्त्व-प्रदर्शितां, ब्रह्मरूपिणीम् नमामि।
अर्थ - सात्विक संकल्प देने वाली, योगक्षेम का संबद्र्धन करने वाली, ब्रह्मतत्त्व को प्रदर्शित करने वाली, ब्रह्मरूपिणी महादेवी सरस्वती को मैं नमस्कार करता हूँ।

शारदे! सद्गुणकरीं नवधाभक्तिदायिनीम्।
समष्टिभेदविवेचिनीं नमामि श्रीं ज्ञानकारिणीम्।।९९।।
अन्वय - शारदे! सद्गुणकरीं, नवधा-भक्तिदायिनीम् समष्टि भेद विवेचिनीं, श्रीं ज्ञानकारिणीम्  नमामि।
अर्थ - अम्बिके शारदे! आप सद्गुण प्रदान करने वाली, नवधा भक्ति देने वाली, समष्टि के समस्त भेद खोलने वाली, श्री ज्ञान को देने वाली हैं। ज्ञानकारिणी महादेवी सरस्वती को मैं नमस्कार करता हूँ।

अशक्तबलवर्द्धि‍नीं सरस्वतीं विश्वभाविनीम्।
आत्मप्रकाशप्रदातृकां नमामि वीणावादिनीम्।।१००।।
अन्वय - अशक्त बलवर्द्धिनीं, सरस्वतीं, विश्वभाविनीम्, आत्म-प्रकाश-प्रदातृकां, वीणावादिनीम् नमामि।
अर्थ - सरस्वती अशक्त को शक्ति प्रदान करने वाली, विश्व को भाने वाली, आत्मा के प्रकाश को प्रदान करने वाली हैं। वीणावादिनी महादेवी सरस्वती को मैं नमस्कार करता हूँ।

इति डॉ बृजेशसिंहेन विरचितं सरस्वती-शतकं सम्पूर्णतामगात्।