Tuesday, March 15, 2011

निष्कर्ष - गज़ल संग्रह - भाग 3

गजल क्रमांक 26 से 40
26

सारी दुनिया ने पस्त पड़ते देखा है ताकत के मगरूर सिकन्दरों को।
नहीं होती दो गज की जमीं भी मयस्सर कद्दावर हिटलरों को।

दुनिया अपने कदमों तले रौंदने का ख्वाब देखने वालों का,
‘बृजेश’ हमने देखा मुँह के बल गिरते बड़े बड़े मगरूरों को।

लोहा मानती थी दुनिया मगरूर रावण की राक्षसी ताकत का,
मगर लंका सोने की मटियामेट करते देखा तुच्छ रीछ बंदरों को।

देखा तैमूर गोरी गजनवी अब्दाली चंगेज इंसानियत के दुश्मनों को,
काँपती थी दुनिया देख हैवानियत व तबाही के खौफनाक मंजरों को।

यकीनन जुर्म और गुनाह की कभी लम्बी उम्र होती नहीं जहाँ में,
देखा थोड़े ही वक्त के बाद खत्म होते इन भयानक बवंडरों को।

धूल मिलते देखा हिन्दुस्तानी बजूद खत्म करने की फितरतों को,
दरिन्दों ने दुनिया को ओढ़ाने की कोशिश की दहशत के चादरों को।

कहते हैं ब्रितानी निजाम का आफताब नहीं डूबता था कभी ‘बृजेश’,
टापू तक सिमटते देखा, फिरंगी फतह करने वाले सात समन्दरों को।


27

हर आदमी की अपनी अलग कुछ न कुछ कहानी होती है।
दुनिया की कुछ तो कुदरत की दी कुछ परेशानी होती है।

कभी अपनों की मनमर्जी कभी किसी की खुदगर्जी को ढोना होता,
सबको जिन्दगी की कुछ न कुछ बड़ी कीमत चुकानी होती है।

इस दुनिया में अक्सर अपनों से मुँह की खानी होती है।
जिन्दगी में कईयों की दखलअंदाजी व मनमानी होती हैं

आपाधापी में यहाँ लटकी सलीब पर जिन्दगानी होती है।
दुश्वारियों में डालना महज अपनों की मेहरबानी होती है।

फल की आशा के बिना यहाँ फर्ज समझ बस करते चलो,
दिल से न कोई अहसान मानता ए महज मुजबानी होती है।

जिम्मेदारियों का बोझ ढोते-ढोते कंधे छिल जाते अक्सर
‘बृजेश’ कोल्हू के बैल सा चलते-चलते जिन्दगी गंवानी होती है।


28

आदमी को अपनी अंदरूनी ताकत का न थाह होता है।
इन्सां का हौसला बुलंद हो अगर तो वह फौलाद होता है।

अगर पक्का इरादा है तो वो क्या कर नहीं सकता,
इन्सां के पास संभावनाओं का अनन्त आकाश होता है।

इरादे को मजबूत पंख मिले अगर उड़ान में ऊँचास होता है।
कुदरत को भी फौलादी इरादे का हरदम तलाश होता है।

महज एक गाँधी काफी होता है मुकम्मल इंकलाब के लिए,
आदमी को अपने सदाकत की ताकत का न अंदाज होता है।

इन्सां का सच्चा रहबर उसका अंतर-आवाज होता है।
आदमी के कामयाबी का सूत्र खुद उसके पास होता है।

स्वार्थ की पगडंडी छोड़ परमार्थ के राजपथ पे चलने वाले जो,
‘बृजेश’ समूचे वतन को ऐसे वीर सपूत पर नाज होता है।


29

इन्सान सुकून पाने को दर बदर भटकता है।
आज यहाँ सच्चा आदमी किस कदर झुलसता है।

यकीनन दो पल भी ठहरना यहाँ मुश्किल होता,
सियासी फिजाओं से महज नफरत बरसता है।

जहाँ में शरीफों का सियासत से क्या वास्ता,
जुबां खोलने पर यहाँ कहर बरपता है।

अवाम को हिफाजत मय्यसर होती नहीं,
अब अमन चैन को गाँव शहर तरसता है।

सियासत के तंग गलियारों में हमने देखा,
सियासतदारों का कद यहाँ किस कदर सिमटता है।

सियासत के बिसात पर मोहरें लगती हैं सभी,
‘बृजेश’ सियासी चालों से फकत जहर टपकता है।


30

कभी दगा देता तो कभी धोखा खुद खाता है आदमी।
औरों की जिन्दगी को अक्सर नरक बनाता है आदमी।

जानता है करनी का फल भोगना पड़ता है, यहाँ मगर,
अपनी फितरतों से न कभी बाज आता है आदमी।

न चैन से रहता न दूसरों को रहने देने का इरादा,
नाहक ही अपनो से भी अक्सर रार बढ़ाता है आदमी।

पुरान और कुरान का असर जरा सा भी पड़ता नहीं इस पर,
जहालत में खुद तड़पता औरों को भी तड़पाता है आदमी।

दो दिन की होती जिन्दगी, कर्मों का फल होती नियति,
फिर भी खौफ कुदरत का नहीं खाता है आदमी।

दूसरों की रुसवाई का तमाशाई बनते-बनते ‘बृजेश’
जैसे खुद भी एक भद्दा तमाशा बन जाता है आदमी।


31

फसाद की फसल हर तरफ लहराने लगी है।
अमन की फसल सब तरफ मुरझाने लगी है।

बेगुनाहों के खूं से धरती हर तरफ तर बतर हो गयी,
यहाँ शैतानियत भी खाके अब चक्कर, शरमाने लगी है।

चमन की भाई चारे की पौध शाला सुखी बंजर सी लगती,
बहुतों को फिरकापरस्ती की अब नसल भरमाने लगी है।

वतनफरोशों के हाथो बिके चंद सियासतदारों के खौफनाक,
दुरभिसंधि की कहर वतन पर रंगत दिखाने लगी हैं

दहशतगर्दों की सियासत में बढ़ती दखलअंदाजी,
‘बृजेश’ मजलूम अवाम पर फकत कहर बरपाने लगी है।


32

पीछे छूट जाएगी भीड़-भाड़ इस दुनिया के मेले की।
जिन्दगी का आखिरी सफर सब जानते अकेले की।

जहाँ खड़ा उसे ही हद मान बैठा ए आदमी,
हालात खूँटे से बंधे चौपाये के जैसे तबेले की।

दो पल के इस मेहमां की जहालत तो देखो,
भारी जमीं घेर ली दुनिया के दो दिन के मेले की।

जरा सा भटका अगर तो भटकता ही गया,
आर पार का पता नहीं इस दुनिया के रेले की।

रूहानी सफर में खाली हाथ चलना भी मुश्किल,
‘बृजेश’ मगर भारी गठरी उठा ली झमेले की।


33

पूरब पश्चिम के बीच खत्म फासला होने को है।
किसमें कितना है दम अब फैसला होने को है।

लद गये दिन जब पिछड़ो में शुमार थे हम ‘बृजेश’
हिन्दुस्तान का सबसे आगे अब काफला होने को है।

दिन ब दिन हौसले का कारवां बढ़ता ही जा रहा,
अध्यात्म और विज्ञान में भी अब मुकाबला होने को है।

ज्यों ज्यों आगे विज्ञान बढ़ता वो अध्यात्म के करीब आता,
मजहबों की हठधर्मिता का हल मसला होने को है।

सदियों के गुलामी की जहालत यकीनन अब खत्म होने को ‘बृजेश’
दुनिया पीछे चलेगी हिन्दुस्तान के, यह जलजला होने को है।

तिजारत के बहाने जकड़े गये गुलामी के जंजीरों में हम,
‘बृजेश’ अब शिकारी ही शिकार खुद भला होने को है।


34

फिरकापरस्तों के हाथों बँट गया है हिन्दुस्तान अपना।
अपनी ही संतानों के हाथों सिमट गया है हिन्दुस्तान अपना।

पंजाब, सिन्ध बंग कट गया अपने ही चमन से,
मजहबी उन्माद की भेंट चढ़ गया है हिन्दुस्तान अपना।

जाने कब से दहशतगर्दों का अड्डा बनें पड़ोसी मुल्क,
फसादी जेहादियों का निशाना बन गया है हिन्दुस्तान अपना।

मुल्क में अमन-चैन का बसेरा न जाने कब से हटा,
सियासतदारों की खूनी रवायत में फँस गया है हिन्दुस्तान अपना।

‘बृजेश’ एक ही पुरखों की दोनों औलादें हैं मगर,
हिन्दू-मुसलमां के हाथों कट गया है हिन्दुस्तान अपना।


35

यहाँ बात की बात मगर कुछ भी नहीं।
रिश्ते तो दिखते जज्बात मगर कुछ भी नहीं।

खुदगर्जी के गर्त में ऐसे समाये लोग यहाँ,
देखने को कद्दावर ख्यालात मगर कुछ भी नहीं।

हर तरफ मतलबपरस्ती को देख सोचना होता,
महज बात ही बात यहाँ औकात मगर कुछ भी नहीं।

हर जगह चलते-फिरते मुरदे ही नजर आते महज,
आदमी का ढाँचा खड़ा हयात मगर कुछ भी नहीं।

मतलबी रिश्तों के खोखलेपन से दम घुटता ‘बृजेश’,
मुश्किलात मुँह बाये खड़ा सौगात मगर कुछ भी नहीं।


36
न जाने कितने मजबूरों के कराहों का हाथ होता है।
न जाने कितने मजदूरों के आहों हाथ होता है।

बुलंदी के आसमां पे बैठे कईयों की कामयाबी में,
अक्सर अनगिनत गलत राहों का हाथ होता है।

जाने कितनों के गले काटने वालों को आगे बढ़ते देखा,
दौलत के ढेर पे बैठने में खुदगर्ज चाहों का हाथ होता है।

दौलत बटोरने गैरत, ईमान को दाँव लगाते देखा,
यहाँ बिकते जमीरों बेईमानी के छाँहों का हाथ होता है।

जल्द बढ़ने की हवस में नीचे गिरते लोग यहाँ कई-कई,
कामयाबी में अक्सर जाने कितने गुनाहों का हाथ होता है।

दौलत की लत के आगे शर्मो हया का मोल होता नहीं,
दौलत घर भरने में अक्सर बेशर्म निगाहों का हाथ होता है।

‘बृजेश’ किसी दौलतमंद को दौलत यूँ ही मिलती नहीं,
यहाँ जाने कितने मजलूमों के आहों का हाथ होता है।


37
छोड़ा चहचहाना बुलबुलों ने ए मनहूस कैसी वीरानी है।
पत्ता-पत्ता मुरझाया लगता फकत दुख भरी कहानी है।

दहशतगर्दों के रहमोकरम का हर सख्स मोहताज यहाँ,
हालात के शिकार बने, दिखती हारी-थकी जवानी है।

अँखियन में पानी भरी-भरी, केसर क्यारी सूख चली,
लगे धरती का स्वर्ग जहन्नुम सा खूं सस्ता मँहगा पानी है।

चलती मनमर्जी वतनफरोशों की, सल्तनत दहशतगर्दों की,
दरवेश, फकीरों की पूछ नहीं, मौन ऋषि मुनियों की वानी है।

‘बृजेश’ एक ही पुरखों की औलाद हिन्दू मुसलमान दोनों, मगर
कैसे काट रहा भाई, भाई को अपने देख यही हैरानी है।


38

कामना और वासना के सेज पे पल रही है जिन्दगी।
ढलना ही आखिरी अंजाम इसका और ढल रही है जिन्दगी

मुकद्दस मकसद होता नहीं अक्सर आदमी के पास,
‘बृजेश’ चिन्तन नहीं चिन्ता चिता पे जल रही है जिन्दगी

कुछ कर गुजरने की ताकत रही, तब गाफिल सोया रहा इन्सां,
वक्त गुजर जाने के बाद अब हाथ मल रही है जिन्दगी।

खुशियों के चन्द लम्हों के वास्ते तरसता रहता आदमी,
रो धो के चलना हस्र, इसका घिसट के चल रही है जिन्दगी।

चाहतों की फेहरिस्त लम्बी लिए दर ब दर भटकते रहे,
‘बृजेश’ कामनाओं के झुनझुनों पे अब बहल रही है जिन्दगी।

39

अरमान दूसरों का यहाँ मसलते हैं लोग।
मजलूमों की चिता पर रोटियाँ सेंकते हैं लोग।

जमीर और गैरत से दूर का नाता भी नहीं,
आज इन्सानियत का गला रेतते हैं लोग।

खुदगर्जी के आलम में दूसरों की क्या बातें करें,
आज गढ्ढे में अपनों को भी ढकेलते हैं लोग।

जिधर देखो शैतानियत का बोलबाला यहाँ,
इन्सानियत के चेहरे पे तेजाब फेकते हैं लोग।

‘बृजेश’ अमन के रंग मँहगे हो गये अब ,
इसलिए होलियाँ खून की खेलते हैं लोग।


40

बैठे हैं बेबस अपने ही हाथों अपना चमन उजार के।
जी सकते थे बेहतर मगर जिए जैसे-तैसे दिन गुजार के।

‘बृजेश’ दुनिया को सीख देने की फितरत रही हमारी,
मगर बैठे अपने ही मसलों में हम हिम्मत हार के।

न वे समझ सके हमको, न हम उनको समझा सके,
हालात से मजबूर वो भी, बैठे हम भी बैठे थक हार के।

है साथ रहने की जरूरत दोनों को बराबर, मगर
अफसोस साथ निभाया जबरिया मन मार के।

रो धो के शिकवा गिला में दिन रात बस कटते गये,
‘बृजेश’ आया बुलावा चल दिए उपर यूँ हाथ पसार के।

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