Tuesday, March 8, 2011

निष्कर्ष - गज़ल संग्रह - भाग 2

13

वो महज श्याम के, और सारे पहचान खो गए।
रसखान के मन के पूरे सारे अरमान हो गए।

श्याम रंग भाया रसखान को इस कदर,
वो श्याम के और उनके घनश्याम हो गए।

मुरलीधर की मुरली का ऐसा कुछ असर
उनकी वंशी के तान पे रसखान खो गए।

तराने सूफियों से हैं आज भी कानों में गूंजते,
औलिया रसखान फकत रस के खान हो गए।

बृजेश को भी भाए रसखान इस कदर
रसखान खास दिल के मेहमान हो गए।

‘बृजेश’ ऐसी थी मेरे औलिया रसखान की नजर
निगाहों में बस एक ही राम और रहमान हो गए।

14

गुनहगार गाँठों में अक्सर भरपूर दाम देखा होगा।
गिरते जमीरों पे यहाँ चमत्कृत आवाम देखा होगा।

बुलंद साया हरदम कद्दावर होने का सबूत नहीं होता,
आपने उनके साये को सुबह या शाम देखा होगा।

बुलंद कदों की तंगदिली देखी है हमने अक्सर
असलियत नहीं शायद ऊपरी ताम-झाम देखा होगा।

अवाम के शोषक, पोषक का स्वांग रचाते कई-कई अक्सर,
बेशर्मियों का प्रदर्शन आपने सरेआम देखा होगा।

दौलत के दम पे सुनहरे हर्फ में इश्तहार देने वाले कई,
‘बृजेश’ शायद अखबारों में उनका छपा नाम देखा होगा।

15

किसी को वो बड़े मुश्किल से हमदर्द हमसफर देता है।
कभी कभी ही ऊपरवाला खुशियों की डगर देता है।

ऊपरवाले की बेदरदी से कलेजा फटता है कभी,
जब गम की इंतिहा और आँसुओं का समन्दर देता है।

दो दिलों को मिलाकर एक करता कभी वो,
फिर जानेमन को जुदाकर दरदे जिगर देता है।

खुदा की खुदाई खुद ऊपरवाला ही जाने,
हमसफर देता फिर जुदाई का जहर देता है।

कुदरत की कारस्तानी समझ पाता न कोई,
‘बृजेश’ कभी खुशी तो कभी गम का सफर देता है।

16

हर इन्सान का इम्तिहान लेना कुदरत चाहती है।
आदमी को अक्सर ए रिश्तों के सलीब पे टांगती है।

जिन्दगी हरदम सुखों की सेज होती नहीं,
कई कई बार जीते जी ए इंसा को मारती है।

इम्तिहानों का कभी खत्म न होने वाला सिलसिला,
अक्सर सब्र के पैमाने को जिन्दगी थाहती है।

कभी सख्ती की इंतिहा होती, तभी कहते जिन्दगी,
आदमी को वक्त की कसौटी पे कसना चाहती है।

सस्ते निपटने की कोशिश हिमाकत होती ‘बृजेश’,
जिन्दगी जीने की कीमत आदमी से माँगती है।

17

इन्सान के पीर का पैमाना होता है समन्दर।
तभी तो हरदम इतना खारा रहता है समन्दर।

आदमी जब से आया गम में रोता ही रहता,
इन्सानी अश्कों से नमकीन बन जाता है समन्दर।

इन्सान की जिन्दगी हादसों में पलती रहती,
जाने कितने सुनामी दामन में पालता है समन्दर।

अपनों की रूसवाइयों पर जिन्दगी खप जाती अक्सर,
इसलिए जीवन गम का कहलाता है समन्दर।

आज तक गहराई का थाह न लगा है न लगेगा कभी,
बेशुमार पानी से हरदम उफनता है समन्दर।

आँखों का आँसू न खत्म हुआ है न होगा कभी भी,
तभी धरती का तीन चौथाई विस्तार पाता है समन्दरै।

न खाली हुआ है न कभी खाली होगा ‘बृजेश’,
इन्सानी अश्कों के कारण भरा रहता है समन्दर।

18

सितारे चाँद मंगल आसमां मुट्ठी सब समा गया है।
परचम इन्सां का लहरा जमीं और ऊपर आसमां गया है।

आज मजलूम अवाम की जिन्दगी का भरोसा नहीं,
दहशतगर्दों की वहशत से शैतान तक अब शरमा गया है

सदाकत और वतनपरस्ती से हुक्मरानों का क्या वास्ता,
सुविधाओं की फेहरिश्त की चकाचौंध भरमा गया है।

अब पूछ परख होती नहीं, इंसानियत का भाव मंदा,
फकत दुनिया में हैवानियत का बाजार गरमा गया है।

मजहब के नाम पे कत्लेआम मचता ही रहता जहां में
बालक क्या बुजुर्ग जवां पूरा जहाँ अब थर्रा गया है।

मजहब के नाम पे कत्लेआम मचता ही रहता जहाँ में,
बालक क्या बुजुर्ग जवां पूरा जहाँ अब थर्रा गया है।

मगर आज हकीकत बयां करते अपनी जबां कांपती ‘बृजेश’
इन्सानियत का परचम पाताल के गर्क समा गया है।

19

जहाँ में माँ के आँचल से बढ़ के कोई जन्नत नहीं होता
सर पे माँ के साये से बढ़ के कोई सल्तनत नहीं होता।

देह का रोआँ रोआँ माँ के लहू मज्जे से बना ‘बृजेश’
माँ का एहसान भूलने वाले सा कोई बेगैरत नहीं होता।

माँ की दुआओं की असर से औलादों की किस्मत चमकती,
माँ का दिल दुखाने वालों का कभी बरक्कत नहीं होता।

कहते हैं माँ की कदमबोशी से सारे देवता खुश रहते,
माँ की सेवा करने वाले सा कोई खुशकिस्मत नहीं होता।

लाख बुलंदियों पर पहुँचे कोई करके मेहनत-मशक्कत,
यकीनन माँ की दामन से बढ़के रत्न कुछ बेशकीमत नहीं होता।

‘बृजेश’ खुशकिस्मत है वो जिसके सर पे माँ का साया,
धरती में, जन्नत में माँ की मन्नत से बढ़के कोई मन्नत नहीं होता।

20

जंगे आजादी का तराना वंदे मातरम्।
जांबाज शहीदों का गाना वंदे मातरम्।

अपने लहू से सींचा आजादी की पौध को,
उन वतनपरस्तों का अफसाना वंदे मातरम्।

वतन के वास्ते नहा लिए अपने ही खूँ से,
ताकत सरफरोशों का गाइबाना वंदे मातरम्।

मकसद मादरे वतन की बेड़ियों को काटना,
मुल्क के तवारिख का ताना-बाना वंदे मातरम्।

दिया हौसला मदमस्त फिरंगी को पस्त करने,
‘बृजेश’ गैबी ताकतों का खजाना वंदे मातरम्।

21

वतन हिन्दुस्तान की शान वंदे मातरम्।
हम हिन्दुस्तानियों की जान वंदे मातरम्।

फिरंगियों को लोहे के चने, चबवाया इसने,
हम हिन्दुस्तानियों की पहचान वंदे मातरम्।

कट गये सर मगर जुबां पे ए तराना, हरदम,
हिन्दुस्तानियों की मान-आन वंदे मातरम्।

जांबाजों ने अड़ा दी छाती, संगीनों की धार पे,
वतनपरस्त जवानों की आन बान वंदे मातरम्।

चूमे फांसी का फंदा गीत गा सरफरोशों ने,
‘बृजेश’ ताकते हिन्दुस्तानी अवाम वंदे मातरम्।

22

मादरे वतन से बढ़ के कोई मजहब नहीं होता।
वतनपरस्ती से बढ़ के कोई मकसद नहीं होता।

माना मजहब चुनना, इन्सां की आजादी होती मगर,
मादरे वतन से बढ़ के कोई मुकद्दस नहीं होता।

पहना शहीदों ने बासंती चोला फांसी के फंदे चूम के,
वतन के मुहब्बत से बढ़के कोई मुहब्बत नहीं होता।

बेशुमार दौलत के ढेर पे भले ही बैठा हो कोई,
वतनपरस्ती की, जज्बा से हटके कोई मुकम्मल नहीं होता।

‘बृजेश’ वतन पे जाने कितनी जिन्दगियाँ कुर्बान होतीं,
वतन के मुकद्दर से बढ़के कोई मुकद्दर नहीं होता।

23

दौलतमंदों के पीछे बहुत देखे, हों इल्म के कद्रदां तो कोई बात हो।
सदाकत को बना सकें दिल का अगर मेहमां तो कोई बात हो।

औरों को नसीहतें देने वाले आलिम बहुतेरे दिखते यहाँ
झाँक सकें अगर अपने-अपने गिरेबां तो कोई बात हो।

दुनिया में दौलत ताकत वालों पे सभी मेहरबां दिखते यहाँ,
मेहरबां किसी गरीब मजलूम पे हो मेहरबां तो कोई बात हो।

सारी दुनिया को जगाने की कबायद में नाहक परेशां होते,
अगर जगा सकें अपने भीतर के सोये इंसां, तो कोई बात हो।

अच्छी बात कि बड़े-बवंडर तूफां को भी रोकने का है हौसला,
रोक सकें मगर खुदगर्जी के उफां तो कोई बात हो।

खाते-पीते-सोते यूं ही फना हो जाते इस दुनिया से सभी,
दमदार अगर हो आम से उपर खास हटके दास्तां तो कोई बात हो।

दुखियों फटेहालों के मदद की गुहार बहुत अच्छी बात ‘बृजेश’,
मगर सबसे पहले खोल दें अपने आस्तां तो कोई बात हो।

24

गुनाहों की  भारी गठरी बना कोई ढो गया।
कर्त्तव्य को सिराहने दबा कोई सो गया।

ए अपना-अपना होता है ढंग सबका,
यहाँ कोई हँस के गया तो कोई रो गया।

गाफिल वो जो होश खो बैठता यहाँ,
दुनिया के झमेले में कोई खो गया।

अपनों का काम दुश्वारियों से उबारना,
अपनों की जिन्दगी में काँटे कोई बो गया।

कोई मुँह पे कालिख पोत चला यहाँ से,
तो कलंक अपनों का भी कोई धो गया।

वक्त पे चेता नहीं चलाचली की बेला में अब,
पछताना क्या जो हो गया सो हो गया।

अंदाज अलग है सबके जीने का अपना,
‘बृजेश’ कोई जागता, घोड़े बेच कोई सो गया।

25

वक्त सीने को हमारे पल-पल चाक करता जा रहा।
अपने एक एक कर साथियों का साथ छूटता जा रहा।

ज्यों ज्यों उम्र बढ़ती जा रही अपनी ‘बृजेश’
दिन ब दिन दर्द का कारवां भी बढ़ता जा रहा।

अन्दर ही अन्दर दिल अपना टूटता जा रहा।
लावा गम का दिन ब दिन फूटता जा रहा।

न देना कोई उम्रदराज जीने की दुआ हमको,
जिन्दगी का एक-एक पल भारी पड़ता जा रहा।

अपनों के जनाजे ढोते-ढोते कंधे छिल गये ‘बृजेश’
जुदाई की बेइंतिहाई गम से कलेजा फटता जा रहा।

2 comments:

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