डॉ.बृजेश सिह का गद्य व पद्य दोनों विधाओं पर समान अधिकार है, उनके अब तक 10 ग्रंथों का प्रकाशन हो चुका है। अध्यात्म दर्शन और राष्ट्रीयता आपका प्रमुख विषय है। 2000 मुक्तक एवं 1100 गजलें लिखकरआपने इस क्षेत्र में ख्याति अर्जित की है। अभी हाल ही में आपने 3000 शेर की प्रलंब गजल 'समाधान' लिखी है जिसे हिन्दी की सबसे बडी गजल कहा जा सकता है। गजलों के क्षेत्र में 'निष्कर्ष' इनका प्रकाशित पहला गजल संग्रह है......इस संग्रह में शामिल गजलें अब इस ब्लॉग में आपके लिये प्रस्तुत हैं.......

कवि की उलझन तब और भी बढ़ती जाती है जब वे देखते हैं कि अर्थ का अवलंब लकर दुष्ट और सही अर्थों मेंदेश के दुश्मन अभिनंदित होते हैं-
जीवन साधना का सोपान है। यह सस्ते का सौदा कदापि नहीं है इसलिए इसे संवारने और सहेजने के लिए कबीर की तरह ‘ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया’ का आश्रय-ग्रहण करना पड़ता है। यह मार्ग कदापि सरल नहीं। उसे चुकाने के लिए त्यागमयी आचरण का अवलम्ब अपरिहार्य है-सस्ते निपटने की कोशिश हिमाकत होती ‘बृजेश’,
जिन्दगी जीने की कीमत आदमी से माँगती है।
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आत्मा की आवाज सुनना सब के बस की बात नहीं
जमीर के लिए अपना सर्वस्व लुटाना होता है।
विडंबना तो यही है कि स्वतः से अपरिचित व्यक्ति आज समाज सुधारक बना बैठा है।जिन्दगी जीने की कीमत आदमी से माँगती है।
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आत्मा की आवाज सुनना सब के बस की बात नहीं
जमीर के लिए अपना सर्वस्व लुटाना होता है।
अस्मिता का अन्वेषण अनवरत् अध्ययन अनुशीलन और अनुभवों के आलोड़न के बाद ही कहीं मिलता है लेकिन साधना के सोपान पर चढ़े और आगे बढ़े बिना लोग उसके तुल्य का सपना संजोने लगते हैं-
आज व्यक्ति का आकलन प्रदर्शन के प्रश्रय से होता है इसीलिए सीधे-साधे व सच्चे मनुज को लोग दुर्बल समझ लेते हैं-
रसखान की तरह राम और रहमान को समान दृष्टि से निरखने-परखने वाली मौलिक सृष्टि अब कहाँ देखने को मिलती है-
जीवन अश्रु के खारेपन का सागर ही तो है जो सूखता कभी नहीं वरन् निरंतर वृद्धि का वितान बनाता है-
मनु से लेकर आज के मनुज ने माँ को शब्दों में मापने और अनुभवों में झाँकने का प्रयास किया। बतौर डॉ. बृजेश ‘माँ’ के आँचल से बढ़कर संसार में कोई स्वर्ग नहीं सिकजा है और उसके आर्शीवाद से बढ़कर कोई साम्राज्य नहीं उभरा है-
इतना ही नहीं, जन्मभूमि (भारत माँ) से बढ़कर कोई धर्म और देश-भक्ति से बढ़कर कोई उद्देश्य नहीं है-
‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ तो अनेक हैं लेकिन आत्मा की आवाज पर आत्मोत्थान करने वाले अलभ्य हैं-
ये संसार भी अजीब है। यहाँ निर्मम न्याय का नियमन होते रहता है। जिस सिकंदर को जीवन-पर्यंत ताकत का गुमान था, उसे ही अंत में अपने पराजित-व्यक्तित्व से आत्म-साक्षात्कार करना पड़ा। इसी तरह हिटलर जैसे उच्च महत्त्वाकांक्षी व्यक्तित्व को दो गज जमीन भी नसीब नहीं हुई-
सारी दुनिया ने पस्त पड़ते देखा है ताकत के मगरूर सिकन्दरों को।
नहीं होती दो गज की जमीं भी मयस्सर कद्दावर हिटलरों को।
झूठ फरेब का साम्राज्य इतना विस्तृत है कि सच्चे आदमी को ठौर-ठिकाना नहीं मिलता-नहीं होती दो गज की जमीं भी मयस्सर कद्दावर हिटलरों को।
यह मानव भी बड़ा विचित्र है। यह जानते हुए भी कि कर्म के अनुरूप फल की प्राप्ति होती है, वह तिकड़म करने से बाज नहीं आता-
दरबार लगाने वाले औरंगजेब को क्या मालूम था कि मौत के समय वह अकेला और असहाय हो जाएगा। इस तथ्य को केंद्रस्थ करके गजलकार निर्दिष्ट करते हैं कि अंतिम यात्रा तो अकेले ही तय करनी होती है-
सांप्रदायिक उन्माद के चलते हमारा देश सिमटता जा रहा है और हम हैं कि इसे ही बराबर हवा दिए जा रहे हैं-
त्वरित फल-प्राप्ति की प्रत्याशा में फिसलते और गुनाहों में कदम रखते लोगों को कवि ने देखा है-
जल्द बढ़ने की हवस में नीचे गिरते लोग यहाँ कई-कई,
कामयाबी में अक्सर जाने कितने गुनाहों का हाथ होता है।
आज ऐसे निर्लज्ज लोगों की अल्पता नहीं है जो दूसरों की चिता पर अपनी रोटी सेंकने और दूसरी की इच्छाओं को कुचलने से बाज नहीं आते-कामयाबी में अक्सर जाने कितने गुनाहों का हाथ होता है।
यह विडम्बना ही तो है कि मनुज अपनी बनाई मर्यादा की सीमा का स्वतः अतिक्रमण कर बैठता है इसलिए अपने स्वभाव के समक्ष वह स्वयं पराजित हो जाता है-
मानवता के उदात्त को स्पर्श करने वाला देवता-स्वरूप कभी पथभ्रष्ट और कभी पाशविक जीवन व्यतीत करने वाला देव-स्वरूप प्रतीत होता है-
डॉ. बृजेश सिंह के प्रस्तुत संग्रह में जीवन दर्शन सरल-सहज भाषा में प्रस्तुत होकर अभिव्यंजित है। यह संग्रह निश्चित ही हिंदी गजल को नई मंजिल देगा। शुभकामनाओं सहित-
(डॉ. विनय कुमार पाठक)
एम. ए., पी-एच.डी., डी. लिट्, (हिंदी)
पी-एच.डी., डी. लिट्, भाषाविज्ञान
निदेशक-प्रयास प्रकाशन,
सी-62, अज्ञेय नगर, बिलासपुर (छ.ग.) ,
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