Friday, April 1, 2011

समाधान (प्रलंब गजल) भाग 1

वतन, जन और धन की गाथा है 'प्रलंब गजल-समाधान'               - डॉ. विमल कुमार पाठक
एक अद्भुत और ऐतिहासिक कार्य का संपादन कर रहे हैं-पेशे से इंजीनियर, स्वभाव से संवेदनशील साहित्यकार, धर्म और कर्म में राष्ट्र रक्षा हित तत्पर सेनानी कर्तव्य निभाते और राजनीतिज्ञों के दांव-पेंच तथा दोगलेपन से त्रस्त अद्र्ध-निद्रित, मूच्र्छित अवस्था में पहुंचे आम जन को जगाने के लिए प्रतिबद्ध, देशभक्तों के चारण के रूप में प्रतिष्ठित जागरूक कवि डॉ. बृजेश सिंह। राष्ट्र के गौरव सपूत महाराणा प्रताप पर डॉ. बृजेश सिंह के द्वारा दस-पंद्रह वर्षों तक सतत् किए गए शोध, राजस्थान की वीर भूमि में राणा प्रताप के चरण जहाँ-जहाँ पड़े उन सभी पावन स्थलों की रजों को अपने मस्तक में धारण कर वांछित जानकारियों के संकल्प, लेखन, संपादन और पुस्तकाकार उनके प्रकाशन का अति दुष्कर कार्य करके उन्होंने अपने क्षत्रित्व जन्म को धन्य किया है- अपने जीवन को सार्थक किया है। धन बटोरने, स्वर्गिक सुख-सुविधाएँ संग्रहण करने के पीछे पगलाए लोगों की जमात में डॉ. बृजेश सिंह जैसा उदात्त, विचारवाद व्यक्ति शायद करोड़ों में एकाध ही मिले-मेरी अपनी यह दृढ़ मान्यता है।
विगत दस-बारह वर्षों से मेरी, उनसे मुलाकातें प्राय: बिलासपुर के विभिन्न समारोहों, कार्यक्रमों, उत्सवों में होती रही है। अचरज होते रहा है प्रारंभिक मुलाकातों में कि वे राष्ट्रीय अस्मिता, हमारे गौरव राष्ट्र भक्तों, साहित्य, संस्कृति और देश के आज के दिन-ब-दिन गिरते हालातों पर ही चर्चाएं करने में दिलचस्पी लेते रहे हैं। साहित्य, संस्कृति और राष्ट्रीय भावना के विकास के लिए, चिंतन मनन करने, विद्वानों से तद्-विषयक बातें सुनने, चर्चाएँ करने और अपना मंतव्य सुनाने में न खुद कंजूसी करते, न सामने वाले को करने देते। ऊँचे पूरे क्षत्रित्व ओज से परिपूर्ण बलिष्ठ देह-यष्टि वीरोचित भाव-भंगिमा वाले चेहरे में व्यवस्थित दाढ़ी मूंछ से सजे संवरे सदैव मुस्कराते मुखमंडल से अपनी सहृदयता और सरसता से सबको आकर्षित करने वाले डॉ. बृजेश सिंह के लेखन के साथ एक धनात्मक संयोग यह भी है कि वे गद्य और पद्य, साहित्य की दोनों विधाओं में समान गति से रचना-कर्म करते जाते हैं और जो कुछ भी उनका सृजन होता है, चिंतन और मनन करने की काबिलियत से ओत-प्रोत और प्रशंसनीय होता है। उनके निर्देशन में प्रकाशित 'विकास-संस्कृति' विगत चार वर्षों से यांत्रिकी, तकनीकी, साहित्यिक और सांस्कृतिक गौरव-गाथा के एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज के रूप में डॉ. बृजेश सिंह की पत्रकारिता के क्षेत्र में अच्छी, भली और गहरी पैठ और सूण्-बूझ की दास्तान को प्रकट करने वाली बहु प्रशंसित त्रैमासिक पत्रिका है।
देव वाणी संस्कृति में संगीत, साहित्य और कला की अधिष्ठात्री देवी माँ सरस्वती पर रचित और चर्चित गीत काव्य, आध्यात्मिक और भगवद्-भक्ति के हिंदी भजन और सम-सामयिक विषयों पर मुक्तक एवं अन्य कविताओं में अपने भाव भरने में डॉ. बृजेश सिंह सफल रहे हैं और कवि के रूप में समादृत भी हुए हैं।
मुझे उनकी नई और अद्भुत रचना-धर्मिता से परिचित होने का हाल ही में सुयोग मिला। यह पढ़ और कढ़ कर ताज्जुब हुआ कि हिंदी और संस्कृत के छंदों में गीतों के इस रचयिता ने उर्दू भाषा के अति लोकप्रिय छंद/बहर 'गजल' लेखन में भी अपनी प्रतिभा के तेवर प्रदर्शित किए हैं। हिंदी में गजल लेखन के क्षेत्र में सर्वाधिक लिखने और लोकप्रियता अर्जित करने वाले दुष्यंत कुमारजी के साथ कुछेक हिंदी के कवियों के नाम हैं जो उर्दू गजल के ढांचे में (बहर/छंद) अपनी हिंदी की गजले लिखकर यश अर्जित किए हैं-नीरज जी, शमशेर बहादुर सिंह, देवेन्द्र शर्मा इंद्र, बेकल उत्साही, मुनव्व राणा, निदा फाजली, चंद्रसेन विराट, हरीश निगम, ओम प्रकाश चतुर्वेदी पराग, कमलेश भट्ट कमल, डॉ. कुंअर बैचेन, विज्ञान व्रत, राम मेश्राम, शेरजंग गर्ग, डॉ. गौरीशंकर 'पथिक आदि। छत्तीसगढ़ के हिंदी गजलकारों में रायगढ़ के स्व. बंदे अली फातिमी, धमतरी के स्व. मुकीम भारती, भिलाई के श्री अशोक शर्मा, दुर्ग के श्री मुकुन्द कौशल और डॉ. संजय दानी, रायपुर की नीलू मेघ और कोरबा की श्रीमती 'दीप दुर्गवी के नाम उल्लेखनीय हैं।
'समाधान (प्रलंब गजल) की 2000 शेर के प्रकाशनोपरांत मुझे लगता है कि 'महा-कवि' की तर्ज पर डॉ. बृजेश सिंह जी 'महा गजलकार' के रूप में विख्यात हो जाएंगे और हमारे छत्तीसगढ़ का नाम रोशन करेंगे। 'समाधान' की गजलों में राष्ट्र की विभिन्न ज्वलंत समस्याओं पर जहाँ गजलकार की चिंता के दर्शन होते हैं वहीं हमारे राष्ट्रीय परिदृश्य की अनेक झांकियां हमें दिखलाई देती हैं जो गौरवशाली भी हैं, प्रमुदित प्रफुल्लित भी करती हैं और राष्ट्रीय वैभव का बखान करतीं, पुरातन वैभव का स्मरण कराती हैं। दूसरी ओर आजादी के घटना चक्रों राष्ट्रीयता की भावना के लोप, प्रजातंत्र के नाम पर देश को कई फिरकों में बांटने की राजनीतिज्ञों की साजिशों, सरकारी तंत्र पर हावी होने के लिए की जा रही निम्नस्तरीय हरकतों, भ्रष्टाचरण में डूबे समूचे सरकारी तंत्र, जन-आक्रोश, आधी से अधिक आबादी की भूखमरी में जीवन यापन की नियिति, नक्सलाइट समस्या, देश की रक्षा और शांति बहाली के लिए सिर पर कफन बांध कर चौकसी करने वाले सीमा के सैनिक, नक्सली आतंक से जूझते पुलिस, सेना के जवान और गरीबों के कुनबे, नेताओं की मौज मस्ती, साधू, संत, प्रवचनकर्ताओं के नाम पर रंगे कपड़ों में सुसज्जित, धन पिपासु, समस्त ऐश्वर्यों से सम्पन्न व्यभिचारी लोगों पर कटाक्ष, देश की अस्मिता की रक्षा के लिए देशवासियों को 'एक बनो, नेक बनो' और शहीदों के बलिदान को कलंकित करने वालों की फौज के स्थान पर राष्ट्रीयता, पवित्रता और चरित्र की उज्ज्वलता का संदेश देने वाली ये गजलें निश्चितरूपेण जन-मन को भायेगी, लोगों के कंठों में विराजेंगी और वैचारिक क्रांति लायेंगीं, मुझे विश्वास है। आज की आवश्यकता ऐसे ही सृजन की है।

समाधान (प्रलंब गजल)  
......... कुछ अंश......
नाहक गिला शिकवा नाहक ही खौफ खाना है।।
काल के गाल में आखिर सबको ही समाना है।।
जानते आखिरी अंजाम हर शै का यही होता।
फिर भी जाने क्यों मौत के दहशत में जमाना है।।
लाद देती है तमाम दुश्वारियाँ जमाने की।
फिर भी जिंदगी का काम एहसान जताना है।।
ऐसा कुछ कर जायें हँसते-हँसते जाएँ हम।
जंजालों में क्योंकर मन को उलझाना है।।
कौन रोक सका जो रोकने की फिराक में हम।
'बृजेश' जब मौत को आना है तो आना है।। 
नये नये तरीकों से इसे आदमी को सताना है।।
इंसां की समझ के बाहर तकदीर का फसाना है।।
अपनी तरफ खींच लेती है किस्मत सभी को।
अपने-अपने हिस्से का सबको ही चुकाना है।।
जिंदगी के सुमन संग कांटों की वेदना मगर।
पुष्प गुलाबों सा खारों में भी मुस्कुराना है।।
आदमी का सुख चैन गँवारा नहीं होता इसको।
मुकद्दर का काम फकत सबको ही नचाना है।।
करनी ही भाग्य में बदलती जीवन का सच यही।
कर्मों का फल आदमी को पाना है तो पाना है।।
कभी अपना ही वजूद लगे कि बेगाना है।।
अपरिचित अपना ही व्यक्तित्व अनजाना है।।
पल पल बदलती रहती रूप रंग जिंदगी की।
कभी श्रृंगार में डूबे कभी मन सूफियाना है।।
कभी उठते कभी गिरते वक्त एक सा न होता नहीं।
जीवन का सत्य कभी खोना कभी पाना है।।
एक पल हंसाती तो दूसरे पल रूलाती।
जाने कैसा ए जिंदगी का अफसाना है।।
कुदरत का खेल अनोखा मिलता कभी धोखा।
सौगातों का पिटारा कभी सर्वस्व गंवाना है।।
काबिलियत के दम बढऩे का ख्याल बचकाना है।।
सिर्फ इल्म के सहारे ही न ऊपर उठ पाना है।।
फकत उन्हीं का जमाना होता है आज।
सियासी दहलीज पर जिनका गिड़गिड़ाना है।।
खुद्दारी नन्हीं जान पे जमाने की रूसवाईयाँ।
खुद्दार को तलवार की धार पैर रखाना है।।
सच्चाई और खुद्दारी को सियासत में आज।
आग की दरिया से मानो गुजर के जाना है।।
कलमकार बिरले ही काबिलियत से आगे बढ़ते।
सियासत में जमाना आता उन्हीं का जमाना है।
अपनी गजल खुद को ही शिद्दत से सुनाना है।।
सोते जागते इसे मन ही मन गुनगुनाना है।।
मेरी लाड़ली बिटिया है मेरी हिन्दी गजल।
मकसद दुनिया की बुरी नजरों से बचाना है।।
बड़े नाजों से पाला पोसा है इसे हमने।
बिटिया बेटों से कम नहीं यह दिखाना है।।
मेरी बिटिया मेरे बुढ़ापे की सहारा बनी।
इसके सहारे राजी खुशी ऊपर जाना है।।
कंधों पे बड़ी जिम्मेदारी डाली है 'बृजेश'।
आखिरी वक्त थपकी देकर मुझको सुलाना है।।
हर हिंदुस्तानी को अपना दायित्य निभाना है।।
सियासी लच्छेदार भाषणों में न आना है।।
देश से बढ़के हो जाए न मजहब कभी भी।
वतनपरस्तों को जागना और जगाना है।।
लोग मुसीबतें देख आँखें बंद कर लेते।
ए शुतुरमुर्ग सा फकत रेत में सिर गड़ाना है।।
मजहब के नाम वतन का बंटवारा फिर भी।
लोगों को हांकना अपने ही सुरों में गाना है।।
सब देखने के बाद भी लोग मुगालते में हैं कि।
धर्म के बदलने से न कुछ होना जाना है।।
माँ भारती पुकारती दुश्मनों को मिटाना है।।
जहरीले विषदंतों से वतन को बचाना है।।
लचीले कानूनों की वजह से बच जाते दुश्मन।
मिलजुल संविधान को दृढ़ दुर्ग बनाना है।।
मुकम्मल जंग में देरी किस बात की अब।
वतनपरस्तों को युद्ध का नगाड़ा बजाना है।।
पीठ पर सहते आये बार हम मुद्दतों से।
ठानना आततायियों को सबक सिखाना है।।
शहीदों की शहादत की शपथ हिंदवासियों।
लहू के एक-एक कतरे का हिसाब चुकाना है।।
दहशतगर्दों को मिटा धरा का बोझ हटाना है।।
मसले को अब सही अंजाम तक पहुँचाना है।।
बेगुनाहों के खून से रंग गई धरती हमारी।
मादरे वतन की दामन का दाग छुड़ाना है।।
दहशतगर्दों के आगे अहिंसा की कीमत नहीं।
जैसों से तैसे का व्यवहार अपनाना है।।
बहुत हो चुकी याचना शेष रणभेरी बजानी।
दुश्मन तक पहुँच ईंट से ईंट बजाना है।।
सहने और मरने की शपथ शिद्दत से निभाये।
अब आतंक खत्म करने का हलफ उठाना है।।
जिस सीढ़ी से बढ़े उनको उसे ही गिराना है।।
अहसानों को पलक झपकते यूँ बिसराना है।।
जब गर्ज थी उनकी तब सब कुछ थे हमीं ही।
उनको काबिल बनाने की अब मूल्य चुकाना है।।
दुश्मनों से गले मिले ताकि मुझको दु:ख मिले।
फकत उनका मकसद मेरा माखौल उड़ाना है।।
मेरे घर के बाजू से अब कतराकर निकलते।
मानो मेरा दर उनके खातिर हुआ अनजाना है।।
मेरी तारीफ में कसीदे काढ़ते न थकते थे वो।
काम निकलते ही फकत आज आँख दिखाना है।।
१०
कभी ऊपर चढ़ाना है कभी नीचे कूदाना है।।
अजब खेल है इसका उठाना है गिराना है।।
है एक मदारी से कम कुदरत नहीं 'बृजेश'।
इसे इंसां को ताजिंदगी भरपूर नचाना है।।
अजीब शै होता यह कुदरत का कानून भी।
कभी तोडऩा कभी घरौंदो को बसाना है।।
मिजाज का अक्सर अंदाजा न लगता 'बृजेश'।
इसे खुद की शर्तों पे इंसां को चलाना है।।
संसार के मेले से सब पसंद अपनी चुनते।
कुदरत का काम हर किस्म का सामान जुटाना है।।
११
कसौटी पे कसना नाहक विडंबना उठाना है।।
अपनों का इम्तिहान मानों मुसीबते बुलाना है।।
रिश्तों में इम्तिहान की सोचना भी हिमाकत।
हृदय मजबूत रखना उसे आखिर टूट जाना है।।
कसौटी टूट जायेगी आशाएं टूट जाएंगी।
अपनों की परीक्षा पे नाहक सुख चैन गंवाना है।।
खुशफहमी को पलने दो जो चल रहा चलने दो।
चिन्ता चिता पर नाहक खुद को ही जलाना है।
तनहाईयों में रहने की तुम आदत बना डालो।
अगर शिद्दत से ठाना है, अपनों को आजमाना है।।
१२
जाँच के फंदों में मगरमच्छों को न आना है।।
जाँच का मकसद फकत छोटी मछली फँसाना है।।
दौलत के स्रोत की अब जाँच नहीं होगी।
घोषित हो जाए कि महज कर को पटाना है।।
लिडरान अफसरान की काली दौलतों के।
कराधन के बूते मुल्क को महाशक्ति बनाना है।।
हिंदुस्तानी महाप्रभुओं के काले धने से।
अटा पड़ा विख्यात स्विस बैंक का खजाना है।।
विश्व बैंक से अब तक हम कर्ज लेते आए।
थोड़ी चतुराई में मामला उलट हो जाना है।।
१३
लहू से स्वतंत्रता दीप सतत् जलाना है।।
आजादी का मूल्य हमें सर्वदा चुकाना है।।
सरहद पे सतर्क रहना शूरवीर जवानों।
सियासी संधियों की झाँसे में न आना है।।
पीठ पे सहे हैं वार कई बार हमने, फिर भी-
दिवास्वप्रों से सियासत को बाज न आना है।।
खद्दरधारियों के लुभावने भाषणों पे न जाना।
किस करवट बैठे इस ऊँट का न ठिकाना है।।
स्वाधीनता की पौध को लहू से सींचना होता।
'बृजेश' रक्त के अभाव में इसे सूख जाना है।।
१४
परिपक्व लेखन के बिना यदि नाम कमाना है।।
अंतर्निहित संभावना को गर्क में समाना है।।
किसी के प्रतिभा की भ्रूण हत्या ही होती।
अधकचरे लेखन में यदि सम्मान पा जाना है।।
चोर दरवाजे उपलब्धियाँ हासिल करते देखा।
सियासी गलियारों में फकत सर झुकाना है।।
साहित्य में सफलता का संक्षिप्त पथ तलाशना।
प्रज्ञा के लिए मानो आत्मघात ही अपनाना है।।
'बृजेश' मेरी साधना अभी भी है अधूरी।
बिन साधना की सिद्धि में न भरमाना है।।
१५
अराजकता से इनको भरपूर लाभ उठाना है।।
मकसद प्रजातंत्र रसातल तक पहुँचाना है।।
वो मात किए हठ में दंभी दुर्योधन को भी।
क्षुद्र स्वार्थ आपूर्ति में इनको रार मचाना है।।
दुर्योधनों के आगे नहीं चलती किसी की भी।
भीष्म द्रोण सभी को मजबूर हो जाना है।।
संतान मोह में अंधे धृतराष्ट्रों की भरमार।
काबिल को अक्सर सफल नहीं हो पाना है।।
बाँछे खिल जाती जेबीदलों की जब-जब।
राष्ट्रीय दलों को बहुमत पूर्ण न आना है।।
१६
सियासी खेल अजब, जनता को बहलाना है।।
गरीबी दूर कराने की झूठी आस दिलाना है।।
कमजोर हो गये अगर अवाम सेवा क्या खाक करेंगे।
इसलिए ठाना है कि बदन पर चर्बी चढ़ाना है।।
गरीबों के अस्थिपिंजर पे माँस का अता-पता नहीं।
अवाम की घोर चिंता में इनको थुलथुलाना है।।
जनता की दुश्वारियों के खुद जिम्मेदार मगर।
बदहाली पर मगरमच्छी अश्क बहाना है।।
वोटों के वक्त जन पाँच दिन के बादशाह फकत।
सियासी दहलीज पे पाँच वर्ष गिड़गिड़ाना है।।
१७
देव दुर्लभ मानुष तन न यूँ ही गँवाना है।।
जिंदगी जीने का कोई मकसद बनाना है।।
मकसद न कोई हो इस जिंदगी में अगर।
बिन पतवार की नैया को जैसे चलाना है।।
खाना पीना निकालना ही न होती जिंदगी।
जिंदगी का न मतलब यूँ ही मर खप जाना है।।
इस जिंदगी को कोई पावन मकसद चाहिए।
निम्रगामी प्रवृत्ति में न खुद को उलझाना है।।
वाह-वाह करती अपनी पीठ ठोके जिंदगी।
जमीर को 'बृजेश' इतना ऊपर उठाना है।।
१८
गम के बादलों को कभी जीवन में गहराना है।।
कभी कुदरत का आदमी पे गाज गिराना है।।
किसी हादसे से सर्वस्व किसी का लूट जाता।
नियति का इस कदर आदमी को सिहराना है।।
किसी का उजड़ जाता खुशियों भरा आशियाना।
कभी कुदरत को इस कदर कहर बरपाना है।।
कुदरत की बेरहमी से कभी जिंदगी सिहरती।
जिंदगी जीने के मकसद को कभी छीन जाना है।।
घात-प्रतिघातों के दौर से जिंदगी गुजरती।
हादसों के अंदेशों से 'बृजेश' कंपकपाना है।।
१९
मजारों पे श्रद्धा के दो सुमन चढ़ाना है।।
शहीदों को शहादत को न यूँ भूल जाना है।।
मादरे वतन की अस्मिता पर गरदनें कटाई।
खिदमत में पेश किए सर बतौर नजराना है।।
तरक्की के चक्कर में युवा भूल न जायें कहीं।
शहीदों की कुरबानियाँ शिद्दत से याद दिलाना है।।
कुछ मानते कि खैरात में मिली है आजादी।
स्वतंत्रता का मतलब फकत मौज मनाना है।।
मुँह चलाते फोकट ही न मिल गयी आजादी।
'बृजेश' इस गफलत में कहीं सो न जाना है।।
२०
आधी सदी बीतते इंकलाब का सो जाना है।।
वतनपरस्ती जज्बे के सैलाब का खो जाना है।।
वतनपरस्ती को आखिरी वरीयता तक नहीं।
ताज्जुब से आँखें फट जाती मुँह दबाना है।।
वतन की सोचने की फुरसत है किसको।
सुविधाओं के चकाचौंध में सर को झुकाना है।।
खुदपरस्ती की ओर खुद-ब-खुद बढ़ते गये।
वतनपरस्ती रास्ते पे कदम लडख़ड़ाना है।।
तरक्की के वास्ते तरह-तरह की तरकीबे।
आज के तथाकथित कामयाबों को अपनाना है।।
२१
यादों के सावन में नजर को डबडबाना है।।
प्रीत के समंदर में डूबना और उतराना है।।
साथ रहने और जाने के बाद भी तुमको।
एक महका-महका सा अहसास कराना है।।
तेरे मेरे दरमियाँ की अठखेलियों को।
ताजिंदगी स्मृतियों में रखकर सजाना है।।
साथ रहना कुदरत को मंजूर नहीं था मगर।
रूहानी मिलन का सफर क्या कम सुहाना है।।
हरदम मेरे मन में बसा तेरे प्यार की खुशबू।
दिन-ब-दिन 'बृजेश' इसे बढ़ते ही जाना है।।
२२
न चैन से जीते हैं न चैन से मर पाना है।।
आदमी के गरूर को एक न एक दिन ढहाना है।।
आधुनिकता की बहती ए बयार तो देखो साथी।
मजबूरन खुद का कफन खुद को ही जुटाना है।।
जीते जी दो गज जमीन की व्यवस्था करना जरूरी।
ये मानों खुद के द्वारा खुद को ही दफनाना है।।
महानगरों की हालात आज है कुछ इस कदर।
अपनी अंतिम क्रिया का खुद इंतजाम किये जाना है।।
अपनी संतानों पर मानों अविश्वास जताना है।
आदमी की सोच से ऊपर बदल रहा जमाना है।।
२३
आज अमन का चमन कैसा लग रहा वीराना है।।
देश आज फिरकापरस्तों का बन गया ठिकाना है।।
वतनपरस्ती से बढ़के मजहब नहीं कोई।
आतंकियों की बातों में आयों को समझाना है।।
फसादी आग लगाते फिरकापरस्ती की हर तरफ।
वतनपरस्तों को नफरत की आग बुझाना है।।
अलगाववादियों के इरादे को नेस्तानाबूद कर देंगे।
हर हिंदुस्तानी को आज यह हलफ उठाना है।।
भारतवासियों के इरादे नेक हैं हम एक हैं।
विश्व की महाशक्तियों तक संदेश पहुँचाना है।।
२४
सियासत की दागों को मल-मल के छुड़ाना है।।
भगीरथ प्रयास कर सुरसरि पावन को लाना है।।
सिसकती है सियासत, जख्मी है जम्हूरियत।
अवाम के गहरे जख्म शिद्दत से मिटाना है।।
संवेदना के स्रोत सब सूख चले हैं आज।
इस मरूस्थल में किसी भगीरथ को लाना है।।
बेनूर होकर जाने कब से दर दर भटक रही।
सियासत का असली मकसद जन को समझाना है।।
अवाम की किस्मत का फैसला होता है यहाँ।
फकत जम्हूरियत का सियासत इबादतखाना है।।
२५
खानापूर्ति बेगुनाह से गुनाह कबूलवाना है।।
सियासत की अतिवादिता से रिश्ता पुराना है।।
जाने कब किस पे गाज गिर जाए यहाँ।
कभी कोई तो कभी कोई और बना निशाना है।।
काबिल के काबिलियत की कद्र दूर की कौड़ी।
हंस को चुनगा, मोती कौवे के हिस्से आना है।।
इंसाफ होता यहाँ गुनहगारों के हिसाब से।
पक्ष में फैसला मानो ए हक मालिकाना है।।
सियासत सदाकत की अदावत पुरानी 'बृजेश'।
सुलह की सोचना फकत सच को झुठलाना है।।
२६
हिंदुस्तानियों को शिद्दत से मन में बिठाना है।।
भारत को बुलंदियों तक हमें पहुँचाना है।।
संसार की महाशक्तियों में भारत भी शुमार।
अखिल विश्व यह शुभ संदेश को गुंजाना है।।
आध्यात्मिक ऊर्जा से प्रदीप्त करते रहे।
भारत को विश्वगुरु का दायित्व निभाना है।।
कभी तिजारत के नाम गुलामी पाश में जकड़े।
मगर आज उसी से विश्व में दबदबा बनाना है।।
विकास की गंगा बहानी है अपने मुल्क में।
प्रगति का कारवाँ निरंतर आगे बढ़ाना है।।
२७
मिल जुल गाना सभी को अमन चैन तराना है।।
सियासत में सदाकत का गीत गुनगुनाना है।।
विज्ञान में अध्यात्म में कहीं भी पीछे नहीं।
हिंदवासियों मिल जुल देश ऊपर उठाना है।।
व्यक्ति के विकास से देश और समाज बढ़ता।
फकत खुद जगना और संसार को जगाना है।।
जम्हूरियत की सार्थकता इसी में होती सदा।
आगे बढ़ो खुद भी और सबको बढ़ाना है।।
आखिरी व्यक्ति तक का रहे ख्याल 'बृजेश'
शोषित पीडि़त रहे न कोई हक दिलाना है।।
२८
सौ करोड़ भरतवंशियों के जमीर ने ठाना है।।
अधोपतित सियासत का आज उद्धार कराना है।।
अभिशापित लोकतंत्र लोक से ही दूर हुआ।
पावन प्रजातंत्र को इस शाप से मुक्त करना है।।
क्षत विक्षत है सियासत दुर्जनों के व्यतिक्रमों से।
अपराधियों के नापाक अतिक्रमण हटाना है।।
अन्याय और शोषण के खंभों पर है टिका।
डगमगाता पाप से सियासत का शामियाना है।।
सियासत का पाप सिर चढ़ के बोल रहा।
आज जरूरी यहाँ किसी गंगा को लाना है।।
२९
तप:स्थली शैतान पनाहगाह कहलाना है।।
कश्मीर की बेनूरी फकत मन को सिहराना है।।
खानापूर्ति किस चालाकी से हो जाती यहाँ।
अवाम से अमन चैन की बात कबूलवाना है।।
कभी अमन के कारण धरती का स्वर्ग कहाया।
आज कश्मीर बना ज्वालामुखी का दहाना है।।
हर तरफ शैतानियत का साम्राज्य दिखे यहाँ।
जाने कहाँ गया श्रीनगर का श्रीतेज गाइबाना है।।
मजहब के नाम फिजाओं में तेजाब बरसता।
फकत कुत्सित आमूल चूल परिवर्तन हो जाना है।।
३०
बिस्मिल का कहाँ अब जंगे आजादी का तराना है।।
राजगुरु सुखदेव भगत सा किसे शीश गंवाना है।।
गाँधी सुभाष अब कहाँ, बौने किरदार यहाँ।
जिनके पीछे देश चले कहाँ नेतृत्व पुराना है।।
बाँट कर रख दी सियासत ने लोगों के दिलों को।
एकता पर दे शहादत, अब न विद्यार्थी दीवाना है।।
वनतपरस्ती से बढ़कर और कौन सी शै होती।
कसम लें वतन के वास्ते खुद को मिटाना है।।
आज आजादी का अर्थ देश को लूटने की छूट।
आजाद सा अब कहाँ आजादी का परवाना है।।

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